पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२०५

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साधारणीकरण-विशेष धर्मों की हो प्रतिष्ठा के कारण नहीं वरन् अपने पूर्ण व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा में सहृदयों का पालम्बन बनता है । साधारण धर्म (पतिव्रत) की प्रतिष्ठा तो 'सीता' और 'डेस्डीमोना' (Desdimona) में कुछ-कुछ एक-सी है किन्तु उनका व्यक्तित्व भिन्न है । कृष्ण की अनन्यता के साधारण धर्म में सूर और नन्ददास की गोपियाँ एक-सी हैं किन्तु ऊधो के साथ बातचीत में तथा व्यवहार में वे भिन्न हैं । अपनी- अपनो विशेषताओं के साथ वे हमारी रसानुभूति का विषय बनती हैं। हमारी समस्या इस बात की है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व बनाये रखते हुए हम उसे किस प्रकार रसानुभूति का विषय बना सकते हैं । साहित्य में चाहे वह पाश्चात्य हो और चाहे भारतीय, व्यक्तित्व का विशेष मान है । दमयन्ती नल को ही वरण करना चाहती है, देवतानों को नहीं । व्यक्तित्व को खोकर साधारण गुणों-मात्र से काम नहीं चलता है किन्तु हाँ भोजकत्व के लिये अपने-पराये के सम्बन्ध से मुक्त होना आवश्यक है। - अति सामान्यीकरण की प्रवृत्ति का दोष आचार्य शुक्लजी ने साहित्य में न्याय के प्रभाव पर लादा है। न्याय में शब्द का संकेत - ग्रहण (अर्थ) जाति का ही माना गया है, यह कहना न्याय-शास्त्र के कर्ता और . विशेष विशेषकर वातिककार के साथ अन्याय करना है। न्यायसूत्र के निम्नोल्लिखित सूत्र में पदार्थ के सम्बन्ध में व्यक्ति, प्राकृति और जाति तीनों को महत्त्व दिया गया है :- __ 'व्यक्तियाकृतिजत्तयस्तु पदार्थः -न्यायसून (२।२।६८) . इसकी व्याख्या में बतलाया गया है कि जब सामान्य गुणों के सम्बन्ध में कहा जाता है, जैसे 'गाय सीधा जानवर है' तब शब्द जाति का बोधक होता है । जब हम कहते हैं 'गाय लायो' तब वह शब्द डित्थ आदि व्यक्ति का परि- चायक होता है । जब हम कहते हैं कि 'मिट्टी की गाय बनाओ' तब प्राकृति का द्योतक होता है।. 'अभिनवगुप्त का मत :- (१) विभावादि लोक में प्रमदा (स्त्री), उद्यान आदि कहलाते हैं और काव्य में थे ही विभावादि कहलाते हैं। . २. साधारणीकृत हो जाने के कारण इनके सम्बन्ध में न मेरे हैं वा शत्रु के हैं अथवा उदासीन के हैं ऐसी सम्बन्ध-स्वीकृति रहती है और न मेरे नहीं हैं, शत्रु के नहीं है वा उदासीन के नहीं, ऐसी सम्बन्ध की अस्वीकृति ' रहती है :-