पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१९४

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सिद्धान्त और अध्ययन संशय-ज्ञान है और न 'यह राम-का-सा है', ऐसा सादृश्य-ज्ञान है । यदि यह प्रश्न किया जाय कि जब चित्रतुरङ्गन्याय का ज्ञान चारों प्रकार के किसी ज्ञान में नहीं पाता तो उसकी सम्भावना ही क्या, तो उसका उत्तर यह दिया जायगा कि जो चीज होती है वह यदि किसी शास्त्र की व्याख्या में न पाय तो शास्त्र की ही कमी है-'प्रत्यक्षे किं प्रमाण' । यद्यपि साधारणतया अनुमान- मात्र से सुख-दुःख की प्रतीति नहीं होती (अग्नि के अनुमान से चाहे पाशा बँध जाय किन्तु ठंड दूर नहीं होती) तथापि नाटक में नट की कला के सौन्दर्य के कारण (सौन्दर्यबलात्) और सामाजिकों के पूर्वानुभवजन्य संस्कारों के कारण ('सामाजिकानां वासनया चय॑माणो रसः'---काव्यप्रकाश, ४।२८ की वृत्ति में श्री शङ्कक के मत से) वह अनुमान भी रस की कोटि को पहुँच जाता है। अभिनवगुप्त द्वारा 'अभिनव भारती' में अनुमान की अपेक्षा अनुकरण पर अधिक बल दिया गया है। उन्होंने सामाजिकों के चर्वण को भी मानसिक अनुकरण का ही रूप माना है । मत का सारांश : काव्यप्रकाश के अनुकूल श्रीशंकुक के मत का सारांश इस प्रकार है:- (क) वास्तविक रूप से अनुकार्यों (दुष्यन्त, शकुन्तला, रामादि) को ही विभाव कह सकते हैं, उनके ही अनुभवों और सञ्चारियों को अनुभाव और सञ्चारी कहेंगे। (ख) नट इनका अनुकरण करता है। सामाजिक लोग चितुरङ्गन्याय से नट को ही अनुकार्य समझकर उसके अनुभावादि (क्रोध में दांत पीसकर मुट्ठी दिखाना, शोकावेग में बाल नोचना, छाती ठोकना, जमीन पर गिर पड़ना आदि) द्वारा उसमें स्थायी भाव का अनुमान कर लेते हैं। यद्यपि अनुमान का आधार कृत्रिम होता है तथापि नट की कला के कौशल से पूर्वानुभव के संस्कारों से युक्त सामाजिकों के मन में वह स्थायी भाव का अनुमान ही रस बन जाता है । - इस मत के अनुसार नट का चित्रतुरङ्गन्याय दुष्यन्त से तादात्म्य कर उसके अनुभावादि द्वारा गम्य-गमक वा अनुमाप्य-अनुमापक-भाव से सामाजिकों द्वारा रस की अनुमिति होती है। '. श्रीशङ्कक के मत की समीक्षा : श्रीशंकुक ने दो बातों पर जोर दिया है, एक अनुकरण दूसरा अनुमान । विवेचन करने पर श्रीशंकुक की दोनों ही आधारशिलाएँ बालुका-निर्मित प्रतीत होने लगती है। पहली बात तो यह है कि न स्थायी भाव का और न सहचारियों का ही अनुकरण हो सकता है, यदि