पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१९

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( १५ ) के आचार्य तो कारिकाओं के साथ गद्य में वृत्ति लिखते थे और उन पर टीकाएँ भी लिखी जाती थीं। उन टीकाओं में नये-नये सिद्धान्तों का जन्म हुमा । बाल की खाल निकालने के लिए गद्य का माध्यम ही उपयुक्त रहता है, उसका रीतिकाल में प्रभाव रहा । रस-निष्पत्ति का प्रश्न किसी भी रीति- कालीन ग्रन्थकार ने नहीं उठाया है। मैंने केवल 'रसिक-प्रिया' पर सरदार कवि की टीका में देखा है उसका नमूना 'रसिक-प्रिया' के दूसरे छन्द की सरदार कवि की टीका से दिया जाता है :- ____... भुजक्षेपन अनुभाव अरु निर्वेदादि संचारी रति स्थायी ते रस उत्पत्ति होत है तब संकूकही कै उत्पत्ति तो देखबे में प्राबत, इहां कहां राम देखबे में पाबत । अनुभाव कही के ऐसे राम रहै अथवा चे राम सदृश है। यह रीति अनुभाव की है ॥ अरु भट्टनायक कहत हैं के अनुभाव नाही है । याको भोग कहो काहे माया प्रावरण रहित जो चैतन्य परमात्मा जो रस ताको विशिष्ट जो भोग सो लीला राम ते होत है और अभिनवगुप्त पाद कहे हैं । बालंबन कारण सत्य है और उद्दीपन भी सत्य है अरु संचारी भी सत्य है, स्थाई भी अनुभाव ते सत्य होत है ।। परन्तु जे सबके कारण हैं पर कारज में नहीं जान परत है......' --रसिक-प्रिया पर सरदार कवि की टीका (पृष्ठ ७ ) रीतिकाल में नाट्यशास्त्र पर भी विचार नहीं हुआ क्योंकि उस काल में नाटक-रचना का भी प्रभाव-सा ही रहा। ____ केशवदासजी कुछ विवाद के साथ रीतिकाल के प्रवर्तक माने जाते हैं किन्तु रीतिकालीन प्रवृत्तियों के बीज हमको भक्तिकाल में भी मिल जाते हैं। वैसे तो कहा जाता है कि हिन्दी के श्रादि कवि पुष्य ने केशव पूर्व संवत् ७७० में कोई अलङ्कार-ग्रन्थ लिखा था ( देखिए रीति-साहित्य आचार्य शुल्कजी का इतिहास , पृष्ठ २) किन्तु उसका कोई पता नहीं है। हिन्दी में सबसे पहला रीतिग्रन्थ श्रीकृपारामजी की 'हिततरङ्गिणी' है। इसका निर्माण संवत् १५६८ में हुआ था जैसा की नीचे के दोहे से प्रकट है :- 'सिधि निधि शिवमुख चन्द्र लखि माघ शुद्ध तृतीयासु । हिततरंगिणी हौ रची कवि हित परम प्रकासु ॥' -डाक्टर भगीरथप्रसाद मिश्र रचित हिन्दी काव्यशास्त्र में उनु त (पृष्ठ ११) "प्रतानां वामतो गतिः' के अनुसार अङ्क दाई पीर से बाई ओर