रस और मनोविज्ञान-मुख्य और गौण रस उबल उठता है), वीर-रौद्र तथा करुण में विक्षेप (इधर से उधर होना) की मनोवृत्तियां रहती हैं। यद्यपि एक रस से दूसरे के निकालने की बात बहुत वैज्ञानिक नहीं है तथापि इसमें दो बातें विशेष मूल्य रखती हैं, एक तो यह कि श्रृङ्गार और वीर का अनुभव विकास और विस्तार के कारण सुखद है तथा दूसरी यह कि वीभत्स और रौद्र का अनुभव क्षोभ और विक्षेप के कारण दुःखद है । ____इन रसों के विश्लेषण में एक बात और देखी जा सकती है। इन जोड़ों में से एक में आश्रय की प्रधानता और दूसरे में हीनता और दीनता रहती है। श्रङ्गार में पानय की दीनता अवश्य रहती है किन्तु पूर्ण प्रसन्नता के साथ । हास्य में आश्रय की प्रधानता रहती है ।. वीर में आश्रय अपनी श्रेष्ठता का अनुभव करता है, अद्भुत में प्राश्रय अपनी हीनता के साथ आलम्बन की श्रेष्ठता की मानसिक स्वीकृति देता है । वीभत्स में भी आश्रय की श्रेष्ठता रहती है, वह पालम्बन को नीचा और हेय समझता है। भयानक में प्राश्रय अपनी हीनता को स्वीकार करता हुआ उससे भागता है। वीभत्स से भी लोग भागते हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता के साथ । रौद्र में पाश्रय अपने को बड़ा समझता है, करुण में वह दीन हो जाता है। यह बात सञ्चारियों के अध्ययन से स्पष्ट हो जायगी। पाश्चात्य मनोविज्ञान के अनुकूल रस-सिद्धान्त की पूरी-पूरी व्याख्या नहीं हो सकती है। रस-सिद्धान्त हमारे देश की उपज है और वह हमारे यहाँ के दार्शनिक विचारों से प्रभावित है। रस उस पात्मतत्त्व पर अवलम्बित है जिसका सहज गुण आनन्द है । यह चिन्मय, अखण्ड, प्रकाशमय और वेद्यान्तरशून्य है प्रर्थात् उस समय दूसरी वस्तु का ज्ञान नहीं रहता है। यह अवस्था केवल मन को मानने वालों की कल्पना में नहीं आ सकती। आजकल का मनोविज्ञान (Psychology) अर्थात् साइक (Psyche) यानी प्रात्मा का विज्ञान कहलाता है किन्तु उसमें प्रात्मा के उसी प्रकार दर्शन नहीं होते जिस प्रकार कि दूकान के मालिक की मृत्यु के पश्चात् उसके नाम पर चलती हुई और विज्ञापित दुकान में उसका पता नहीं चलता।
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