१५२ सिद्धान्त और अध्ययन की प्रावश्यकता रहती है, सञ्चारी भाव स्थायी भाव को यही सजीवता देते रहते हैं। शृङ्गाररस के रसराजत्व का एक यह भी कारण है कि उसमें अधिक- से-अधिक सञ्चारी भाव आजाते हैं। रसों में सञ्चारी-ही-सञ्चारी नहीं होते वरन् दूसरे रस के स्थायी भी गौण होकर सञ्चारी बन जाते हैं, जैसे श्रृङ्गार और वीर में हास, वीर में क्रोध और शान्त में वीभत्स (इसी प्रकार अन्य रसों का भी हो सकता है)। . भारतीय प्राचार्यों ने रसों की शत्रुता और मैत्री पर ध्यान दिलाकर हमको यह बतलाया है कि कौन रस किससे मेल खा सकते हैं। हास्य के साथ करुण का योग नहीं हो सकता, न श्रृङ्गार के साथ रस की मैत्री और वीभत्स का। कुछ रस ऐसे हैं जिनका एक आलम्बन - शत्रुता में योग नहीं हो सकता, कुछ का एक प्राश्रय में । श्रृङ्गार और वीर का एक पालम्बन में योग नहीं हो सकता। जिसके प्रति प्रेम दिखाया जाय उसके प्रति वीरता के भाव नहीं दिखाये जा सकते, जैसा रावण ने किया था । एक ही पाश्रय (भावों के अनुभवकर्ता) में वीर और भयानक का योग नहीं हो सकता। रस-शास्त्र के प्राचार्यों ने यह भी विवेचन किया है कि दो साथ-साथ न आने वाले रसों को किस प्रकार साथ लाया जा सकता है । इस बात का व्याव- हारिक उदाहरण हमको शकुन्तला में मिलता है । महाराज दुष्यन्त शकुन्तला के वियोग में दुःखित बैठे थे । इन्द्र की ओर से मातलि उनसे सहायता मांगने के लिए पाता है। वह दुष्यन्त के सखा और विदूषक माधव्य को पीटता है। यद्यपि दुष्यन्त अन्यमनस्क थे फिर भी सखा के आर्तनाद से उनका शोध जाग उठा और वे इन्द्रलोक जाने को तैयार होगये ।.. . ___दशरूपककार ने नाटक के पाठ ही रम माने हैं। उनमें शृङ्गार, वीर, वीभत्स और रौद्र को मुख्य माना है और इनसे क्रमशः .. उत्पन्न हुए हास्य, अद्भुत, भयानक और करुण को मुख्य और गौण · गौण कहा है (भरतमुनि ने भी ऐसा माना है)। इन . रस ...... चार प्रधान रसों की चार मानसिक वृत्तियाँ भी मानी हैं । - ये ही मनोवृत्तियाँ उनसे उत्पन्न गौण रसों में रहती है । इस प्रकार शृङ्गार और हास्य में विकास ( जैसे कली खिल जाती है ), वीर और अद्भुत में विस्तार (फैलाव, जैसे धुआँ या हवा फैल जाती है, वीर अपनी सत्ता व्याप्त कर देना चाहता है, अद्भुत में द्रष्टा का चित्त मालम्बन की महत्ता से व्याप्त हो जाता है), वीभत्स और भयानक में क्षोभ (जैसे, पानी
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