पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१६१

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काव्य के वर्ण्य-भाव १२५ ___ राधिका रानी के मन में उत्पन्न हुई पाशङ्का का भी एक उदाहरण नीचे दिया जाता है :- 'मधुपुर-पति ने है प्यार ही से बुलाया। पर कुशल हमें तो है न होती दिखाती। प्रिय-विरह-घटायें घेरती पा रही हैं। घहर-घहर देखो हैं कलेजा क पाती।' -प्रिय-प्रवास (पृष्ठ ४१) भाव के व्यापक अर्थ में तो सभी रस-सामग्री और रस भी आजाते हैं किन्तु भाव का एक विशेष अर्थ में भी प्रयोग होता है जिसमें वह अपूर्ण रस के रूप में आता है । साहित्यदर्पणकार ने भाव की इस प्रकार भाव . व्याख्या की है :- 'समचारिणः प्रधानानि देवादिविषया रतिः ॥' 'उबुद्धमानः स्थायी च भाव इत्यभिधीयते ।' -साहित्यदर्पण ( ३१२६०,२६१) जहाँ निर्वेद, मोह, वितर्क आदि सञ्चारी भाव का वर्णन रस के अङ्गरूप न होकर अर्थात् स्थायी भाव के पोषक रूप से न होकर स्वतन्त्र रूप से हो- देव, पुत्र, मित्रादि विषयों में रति स्थायी भाव हो ( शास्त्रीय दृष्टि से केवल दाम्पत्य रति ही रति कहलाती है ) अथवा स्थायी भाव उबुद्ध-मात्र होकर रह जायँ ' अर्थात् अनुभाव आदि सामग्री से पुष्ट न हों-वहाँ इनकी भावसंज्ञा होती है। स्थायी भाव प्रधान होते हुए भी बिना सहायक सामग्री के रससंज्ञा को प्राप्त नहीं होता है । ऊपर शृङ्गार, वात्सल्य प्रादि के सम्बन्ध में सञ्चारियों के . जो वर्णन आये हैं वे रस के अङ्ग होकर आये हैं, नीचे के वर्णन में स्मृति के साथ मोह सञ्चारी है। यहाँ भाव को ( 'भूले राज-काज भौन भीतर को . . जाइबी') ही प्रधानता दी गई है, देखिए :- 'यहै वृन्दावन वेई मंजु पुजनि में, गुजनि के हार फूल गहिनो बनाइबो । वैही भाँति खेलि खेलि संग ग्वाल बालनि के, आनन्द मगन भये मुरली बजाइबो । मोरन की घोर मंद पवन झकोरे अरु, वंशीवट तट बैठि सारंग को गाइयो ।