.१०२ सिद्धान्त और अध्ययन "काहे को हम ब्रज तन श्रावति ? खेलति रहति प्रापनी पौरी । सुनति रहति श्रवनन नंद-ढोटा करत रहत माखन-दधि-चोरी" ॥ ....... "तुम्हरो कहा चोरि हम ले हैं ? खेलन चलौ संग मिलि जोरी ।" सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि बातन भुरह राधिका भोरी ॥' -भ्रमरगीतसार (भूमिका, पृष्ठ १६) इन वर्णनों में अलङ्कारों के बिना ही सूर ने जो चमत्कार दिखाया है वह दूसरे कवि सारी कविता-कला को बटोरकर भी नहीं ला सकते हैं । इन वर्णनों में रति के साथ हर्ष सञ्चारी की भी व्यञ्जना है, सूर ने रति की. व्यञ्जना कृष्ण की अव्यवस्थित गोदोहन में कराई है :- 'तुम पे कौन दुहाबै गैया ? इत चितबत, उत धार चलाबत, एहि सिखयो है मैया ?' ---भ्रमरगीतसार (भूमिका, पृष्ठ १७) इसमें चापल्य सञ्चारी के साथ कम्प सात्त्विक भाव भी व्यजित है। कम्प के कारण धार भी सीधी नहीं पड़ती है। साथ ही कहनेवाली की तरफ से रति के आश्रित हास्य की भावना है। इसी प्रकार बाटिका के प्रसङ्ग में मर्यादावादी तुलसीदासजी ने भी रति का पूर्व रूप बड़ी सुन्दर शब्दावली में व्यक्त किया है :- 'तात जनकतनया यह सोई । धनुषजन्य जेहि कारन होई ॥ पूजन गौरि सखी लेइ आई। करति प्रकासु फिरइ फुलवाई ।' -रामचरितमानस (बालकाण्ड) - इस चौपाई द्वारा तुलसीदासजी ने रामचन्द्र जी के मन की दशा का वर्णन कर दिया है। जब मन किसी भाव से व्याप्त हो जाता है तब भाव की अभि- व्यक्ति रुक नहीं सकती। रामचन्द्रजी के पास और कोई नहीं था इसलिए . उन्होंने अपने छोटे भाई को ही सखाभाव से विश्वासपात्र बनाया। इसमें उनके मन का हर्ष, जो रति का पोषक है, सूचित होता है । इसमें पूर्वानुराग की गुण-कथन की अवस्था प्रकट होती है। 'करत प्रकासु फिरइ फुलवाई'- इस छोटे से वाक्य में सीताजी के सौन्दर्य की पूर्णातिपूर्ण अभिव्यक्ति हो जाती है । प्रकाश में वर्ण की उज्वलता ही नहीं वरन् व्यापक प्रभाव तथा उसके साथ आने वाली चित्त की प्रसन्नता आदि सभी भाव आजाते हैं। प्रकाश पाशा का भी द्योतक है । 'फिरइ फुलवाई' में सौन्दर्य के अनुकूल वातावरण भी उपस्थित कर दिया जाता है । तुलसीदासजी मर्यादावादी थे। वे मर्यादा का इतना उल्लङ्घन भी नहीं सहन कर सकते थे, इसलिए उन्होंने तुरन्त ही
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