काव्य के वर्थ----ङ्गार स्थिति सम्हाल ली और नैतिकता की स्थापना करदी :-...... ... 'रघुवंसिन्ह कर सहज सुभाऊ । मन कुपंथ पगु धरै न काऊ। ..... मोहि अतिलय प्रतीति जिय केरी । जेहि सपनेहु पर नारि न हेरी ॥' -रामचरितमानस (बाल काण्ड) इस चौपाई में तुलसीदासजी ने साहित्य-शास्त्र में वर्णित मति सञ्चारी . भाव को भी उपस्थित कर दिया है। इसमें कार्य की नैतिकता का निश्चय रहता है। इसकी परिभाषा इस प्रकार दी गई है :- . .... 'शास्त्र चिंतना ते जहां, होइ यथारथ ज्ञान ।। करें शिष्य उपदेश जहूँ, मति कहि ताहि बखान ।' :. . -देवकृत भावविलास (पृष्ठ ४६) देव ने उपालम्भों को भी मति के अन्तर्गत रक्खा है। शकुन्तला नाटक में भी दुष्यन्त ने अपनी अन्तरात्मा की गवाही पर अपने प्रेम-व्यापार की नैति- कता प्रमाणित करली थी। वे कहते हैं कि जब मेरा शुद्ध मन भी इस पर रीझ गया है तब यह निश्चय है कि यह क्षत्रिय के विवाह करने योग्य है। सन्देह के स्थलों में सज्जनों के अन्तःकरण की वृत्ति ही प्रमाण होती है :- 'असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा यदार्यमस्यामभिलाषि ये मनः । सताहि सन्देहपदेषु वस्तुपु प्रमाणमन्तःकरणवृत्तयः॥ -नभिज्ञानशाकुन्तल (११२१) इधर सीताजी की की मनोदशा का चित्रण देखिए :- 'देखि रूप लोचन ललचाने । हरषे जनु निज :निधि पहिचाने ॥ थके नयन रघुपति-छवि देखे । पलकन्हिह परिहरी निमेखे ।। अधिक सनेह देह भई भोरी । सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ।।' -रामचरितमानस (बालकाण्ड) इसमें 'ललचाने' शब्द द्वारा अभिलाषा की दशा प्रकट की गई है और हर्ष सञ्चारी है । इसमें स्तम्भ सात्विक भाव की भी व्यञ्जना हुई है। अब इस प्रसङ्ग में अभिहत्था (एक प्रकार को लज्जा ) और उत्कण्ठा सञ्चारियों की भी छटा देखिए :- 'देखन मिस मृग बिहँग तरु फिरइ बहोरि बहोरि । निरखि निरखि रघुबीर छबि बादई प्रीति न थोरि ॥'.... -रामचरितमानस (बालकाण्ड) इसमें मन की चञ्चलता भी व्यक्त होती है । संयोगशृङ्गार-सम्बन्धी इस सामग्री के सभी अङ्ग हमको बिहारी के नीचे के दोहे में मिलते हैं। इसमें
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