पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१४१

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१०४ - सिद्धान्त और अध्ययन यद्यपि उतनी मानसिक प्रफुल्लता नहीं है जितनी कि सूर और तुलसी के उदाहरणों में किन्तु इसमें एक साथ सब अङ्ग मिल जाते हैं, अनुमान से लगाने नहीं पड़ते हैं :-- 'सहित सनेह, सकोच, सुख, स्वेद, कंप, मुसकानि । प्रान पानि करि प्रापर्ने, पान धरे मो पानि ॥" -बिहारी-रत्नाकर (दोहा २६५) । इसमें नायक और नायिका के एक-दूसरे में अनुरक्त होने के कारण उभयनिष्ठ रति है जो 'सनेह' शब्द से प्रकट होती है । संकोच (ब्रीड़ा) और सुख (हर्ष) सञ्चारी हैं। स्वेद, कम्प. ये अनुभाव के अन्तर्गत सात्विक भाव हैं । मुस्कान भी हर्षसूचक अनुभाव है। इसमें पानों द्वारा आत्मसमर्पण का भी भाव आगया है । सात्विक भावों के और भी बहुत-से उदाहरण बिहारी में मिल जाते है । स्वेद का एक उदाहरण लीजिए :-- 'हितु करि तुम पठयो, लगैं वा बिजना की बाइ.। टली तपति तन की, तऊ चली पसीना-न्हाइ॥' -बिहारी-रत्नाकर (दोहा ५६३) इसमें हर्ष सञ्चारी भी है और पञ्चम विभावना अलङ्कार भी है । संयोग- शृङ्गार के अन्तर्गत हाव भी आते हैं। इनके सम्बन्ध में प्राचार्य शुक्लजी का प्राचीन आचार्यों से मतभेद है । अन्य प्राचार्यों ने तो इनको एक प्रकार से भावों के सूचक ही माना है और इस कारण वे अनुभावों में ही पायेंगे। आचार्य शुक्लजी इनको उद्दीपन के अन्तर्गत रखते हैं । हाव का लक्षण इस प्रकार से दिया गया है :- 'होंहि जो काम विकार से दम्पति तन में पाव । चेष्टा विविध प्रकार की, ते कहिए सब हाव ॥' . -लेखक के नवरस में उद्ध त भाव मन में रहते हैं । हाव वे भाव है जिनका कि भृकुटी, नेत्रादि द्वारा वाह्य व्यञ्जन होता है । नायिका आलम्बन भी ही सकती है और आश्रय भी। नायिका को यदि आश्रय माना जाय तब तो यह अनुभाव ही है किन्तु वह आश्रय रहती हुई भी नायक के लिए पालम्बन बन सकती है । इस दृष्टि से पालम्बन की चेष्टा होने के कारण ये उद्दीपन के अन्तर्गत गिने जाना चाहिए। यहाँ पर हाव का उदाहरण बिहारी से दिया जाता है :---- 'रही दहेंड़ी लिंग धरी, भरी मथनिया बारि। फेरति करि उलटी रई, नई बिलोवनिहारि ।' ---बिहारी-रत्नाकर (दोहा २४५)