सिद्धान्त और अध्ययन व्यापक अर्थ में ही करुण कहेंगे। वियोगशृङ्गार का भी स्थायी भाव रत्ति ही है किन्तु उसमें दीनता, चिन्ता, आवेग, पश्चाताप आदि सञ्चारी उसे संयोग की रति से थोड़ा पृथक् कर देते हैं । उसमें विषाद तो रहता ही है किन्तु हर्ष सञ्चारी भी रह सकता है । ऊधोजी जब गोपियों को कृष्ण का संदेश सुनाते हैं उस समय की दशा का नन्ददासजी इस प्रकार वर्णन करते हैं :- — (क) 'सुनत स्याम को नाम ग्राम-गृह की सुधि भूली, भरि पानद-रस हृदय प्रम-बेली दम फूली । पुलकि रोम सब अँग भये भरि आये जल नैन, कंठ घुटे गदगद गिरा बोले जात न बैन । व्यवस्था प्रेम की ।' नन्ददासकृत भंवरगीत ( पद ३) (ख) 'सुनि मोहन संदेस रूप सुमिरन ह्र आयो, पुलकित अानन कमल अंग अावेस जनायो । विह्वल ह धरनी परी ब्रजबनिता मुरझाय, दै जल छीट प्रबोधहीं ऊधौ बैन सुनाय । सुनो बजनागरी ॥ नन्ददासकृत भंवरगीत (पद ६) (क) में प्रेम के अनुभावों की बड़ी सुन्दर छटा दिखाई गई है। इसमें हर्ष सञ्चारी के साथ स्मृति सञ्चारी भी है। इसमें रोमाञ्च ('पुलकि रोम'), अश्रु ('जल नैन'), स्वरभङ्ग ('गद्गद् गिरा') आदि अनुभाव हैं । ( ख ) में स्मृति, आवेग, अपस्मार आदि सञ्चारी हैं । विह्वलता द्वारा विषाद सञ्चारी भी सूचित हो जाता है । इन दोनों में कृष्ण पालम्बन हैं और रति स्थायी भाव है । . सूर की गोपियों की वियोग-रति के सागर में नाना तरङ्ग उठती हैं । कभी तो वे प्रात्म-ग्लानि से भरकर पछताती हैं :--- 'मेरे मन इतनी सूल रही । धै अत्तियाँ छतियाँ लिखि राखी जे नंदलाल कही ॥ एक दिवस मेरे गृह प्राए में ही मथति दही। देखि तिन्हैं मैं मान कियो सखि सो हरि गुला गही।' -भ्रमरगीतसार ( पृष्ठ १४५) इन पंक्तियों में ग्लानि सञ्चारी है । कभी बादलों को देख कर उनकी स्मृति तीव्र हो उठती है 'गगन गिरा गोविन्द की सुनत नयन भरे वारि',
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