काव्य के वर्य-प्राकृतिक दृश्य ७ हमारे काव्यग्रन्थों में प्रकृति को अलङ्कार तथा अलङ्कार्य दोनों रूपों म ऊँचा स्थान मिला है। महाकाव्यों में प्राकृतिक दृश्यों को भी नायक आदि के साथ वर्ण्य विषयों में रक्खा है :- 'सन्ध्यासूर्येन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः । प्रातमध्याह्नमृगयाशैलतु वनसागराः ॥' -साहित्यदर्पण (६।३२२) केशवदासजी ने वर्ण्य विषयों के वर्णन को भी अलङ्कार मानकर ऐसे विषयों की बड़ी लम्बी सूची दी है। उसमें रङ्ग-जैसे सफेद (कीर्ति, शरद्धन, चन्दन, हंस आदि), काला (जम्बू, जमुना, भील, मृगमद आदि), पीला (चम्पक, वीररस, बृहस्पति, चपला, केशर आदि) आदि और उस-उस रङ्गवाली वस्तुएँ तथा गुण, जैसे सम्पूर्ण गोल, चञ्चल आदि के साथ उन गुणों से विशिष्टि वस्तुएँ भी गिनाई हैं, इनके साथ कविप्रिया में भूमि के भूषण गिनाते हुए प्राकृतिक वस्तुओं की भी सूची दी है, वह इस प्रकार है:- देश, नगर, बन, बाग, गिरि, पाश्रम, सरिता, ताल । रवि, शशि, सागर, भूमि के, भूषण ऋतु सब काल ।' -कविप्रिया (भूमिभूषणवर्णन १) इसके बाद उन्होंने एक-एक शीर्षक के अन्तर्गत आनेवाली वस्तुएँ भी गिनाई है, जैसे बन के वर्णन में वे निम्नलिखित वस्तुएँ बतलाते हैं :-- 'सुरभी, इभ, बन-जीव बहु, भूतप्रेतभय भीर । भिल्ल-भवन, चल्ली -विटप, दववन "बरनहु धीर । -कविप्रिया (भूमिभूषणवर्णन ६) इस प्रकार रीतिकाल में काव्य के वर्ण्य विषयों की परम्परा-सी बन गई थी। रामचन्द्रिका में तो परम्परा का पालन किया ही गया है किन्तु रामचरित- मानस में भी प्रायः ये विषय पाये हैं। रामचन्द्रिका और कविप्रिया म समान रूप से आये हुए ऐसे कुछ छन्दों की तालिका लेखक की 'हिन्दो-काव्य- विमर्श' पुस्तक के अन्त में देखी जा सकती है। स्वाभाविक रूप से भी महाकाव्यों में ये विषय आ ही जाते हैं किन्तु जहाँ ये वर्णन प्रसङ्ग में घसीटकर लाये जाते हैं और एक बाँधी हुई परिपाटी के अनुकूल किये जाते है वहीं ये निंद्य हो जाते हैं। इभ अर्थात् हाथी का वर्णन प्रत्येक बन के सम्बन्ध म सम्भव नहीं और प्रत्येक बन में चन्दन के वृक्ष का भी वर्णन नहीं हो सकता। 'चन्दनं न बने-बने' वर्णन निजी निरीक्षण पर आश्रित रहने चाहिए। ... रसात्मक वाक्य होने के कारण काव्य का मूल रूप रागात्मक या
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