सिद्धान्त और अध्ययन पानि पर तू पच्छी तु न मार ।'-अथवा तुलसीदासजी के वर्षा और शरद- वर्णन में 'उदित अगा पन्ध्र-जल सोखा, जिमि लोभहि सोपहि सन्तोषा ।', (६) मानवीकरण रूप से, जैसे निरालाजी की सन्ध्या-सुन्दरी में 'दिवसावसान का समय, मेघमय आसमान से उत्तर रही है, वह सन्ध्या -सुन्दरी परी-सी, धीरे-धीरे-धीरे', (७) ईश्वर-सत्ता की अभिव्यक्ति के रूप से, जैसे वर्ड्स्वर्थ, प्रसाद, पन्त आदि में:- (क) 'प्राची के अरुण मुकुर में, __सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा । उस अलस उषा में देख', अपनी आँखों का तारा ।' -प्रसाद (ख) 'एक ही तो असीम उल्लास विश्व में पाता विविधाभास तरल जलनिधि में हरित विलास, शान्त श्रम्बर में नील विकास वही उर-उर में प्रेमोच्छ्वास, काव्य में रस कुसुमों में बाल अचल तारक पलकों में हास, लोल लहरों में लास !' पन्त इन सबमें जड़-चेतन का सामञ्जस्य स्थापित कर प्रकृति को मानव के समकक्ष बनाने का मानवी दृष्टिकोण परिलक्षित होता है। इतना ही नहीं यह बात साहित्य की सहितता और समन्वय-बुद्धि का परिचायक भी है। केशव आदि ने (सेनापति ने भी श्लेष-प्रधान छन्दों में ) केवल चमत्कार-प्रदर्शन . के लिए जो प्रकृति-वर्णन किया है वह चाहे कवि के पाण्डित्य के लिए हमसे प्रशंसा के दो शब्द कहला ले किन्तु उसमें कवि का प्रकृति के प्रति प्रेमभाव नहीं दिखाई देता है। केशव ने अर्क (अकौमा और सूर्म) के श्लेष के आधार पर दण्डक-वन में प्रलयकाल के सूर्यो-का-सा प्रकाश कराया है--- 'बेर भयानक-सी अति लगै, अर्कसमूह जहाँ जगमगै' (रामचन्द्रिका, अरण्यकाण्ड)----किन्तु इस बात में बिहारी ने अधिक सुबुद्धि का परिचय दिया है ...... 'गुनी गुनी सबमैं कहैं निगुनी गुनी न होतु । ..... . सुन्यौ कहूँ तर अरक तें, अरक-समानु उदोतु ॥ -अनुश्री साव (वार्ता)-बिहारी-रत्नाकर (दोहा ३५१)
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