. काच्य के वर्य-प्राकृतिक दृश्य अन्तर रह जाता है। भारतीय धर्म और दर्शन प्रकृति को चेतन से अनुप्राणित मानता है, इस दृष्टि से इस हेत्वाभास में कोई तीव्रता नहीं रहती है, फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से अचेतन वस्तुओं से चेतन-का-सा काम लेने को, जैसे मेघ और पवन को दूत बनाने को, औचित्य-विरुद्ध ही माना है । आचार्य मम्मट ने इन बातों को दोष माना है :--- 'अयुक्तिमद्यथा दूता जलभृन्मारुतेन्दवः । ..... तथा भ्रमर हारीत चक्र वाक शुकादयः ॥' -काव्यालङ्कार (11 ४२) भामह ने बादल, वायु, चन्द्र, भौंरा, चक्रवाक, शुकादि सभी दूतों द्वारा संदेश भेजना अयुक्तिमत् कह दिया है। बुद्धिवाद का प्रभाव उस समय भी था। . ___ संवेदना के हेत्वाभास की बात को कालिदास भी जानते थे किन्तु विरह की तीव्रता के वर्णन में वह हेत्वाभास भी सत्य का परिचायक होता है । कभी- कभी जैसे श्रीरामचन्द्रजी के प्रश्न-'हे खग मृग! हे मधुकर श्रेनी, तुम देखी सीता मृगनयनी'--में चेतन-अचेतन का अभेद मन की वास्तविक विरहजन्य उन्माद-दशा का द्योतक होता है। . सूर ने भी कृष्ण के वियोग में गोपियों के साथ जमुना को 'विरह-जुर- जारी' कह 'देखियत कालिंदी अति कारी। कहियो, पथिक ! जाय हरि सों ज्यों भई बिरह-जुर-जारी ॥ --भ्रमरगीत-सार (पृष्ठ १०७) किन्तु जायसी और उनमें इस बात का अन्तर है कि सूर ने मधुबन और जमुना को ही लिया है जिनसे कि श्रीकृष्ण का विशेष सम्बन्ध था, उन्होंने जायसी की भाँति सारी प्रकृति को नहीं लिया। ___इस प्रकार हम देखते हैं कि साहित्य में प्रकृति-वर्णन की जितनी विधाएँ हैं-(१) पालम्बनरूप से, जैसे संस्कृत-काव्यों में तथा शुक्लजी, प्रसादजी, पन्त, निराला आदि की रचनाओं में, (२) उद्दीपनरूप से, जैसे हिन्दी कवियों के ऋतु-वर्णनों एवं बारहमासा आदि में, (३) मानवी व्यापारों के लिए अनु- कूल पृष्ठभूमि के रूप में, जैसे 'कामायनी' के 'पाशा सर्ग में' अरुणोदय श्रद्धा के आगमन के लिए अनुकूल सुरम्य. पृष्ठभूमि तैयार कर देता है-'उषा सुनहले तीर बरसती जय-लचमी सी उदित हुई।, (४) अलङ्कार-योजना में, जैसे सूर आदि में कृष्ण के सौन्दर्य-वर्णन में-'मनो प्रात की घटा सांवरी तापर अरुन प्रकास ।', (५) उपदेश-ग्रहणरूप से, जैसे अन्योक्तियों में--'बाज पराये
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