सिद्धान्त और अध्ययन की गुंजाइश कम रहती थी। यह बात राम-कृष्ण आदि अवतारी पुरुषों पर अधिक लागू होती थी। मनुष्य के अन्तःकरण का परिचायक या तो उसका बार्तालाप होता है या उसका काम, यदि दिखावटी न हो । ये सब विभाव के ही अङ्ग हैं। विभाव-वर्णन में आलम्बन और उसकी चेष्टाओं के अतिरिक्त उद्दीपनरूप से प्राकृतिक दृश्य भी आते हैं। उद्दीपन उचित वातावरण ही नहीं उपस्थित करते वरन् रस को जाग्रत रखने और उसकी अनुभूति में प्राकृतिक दृश्य तीव्रता प्रदान करने में भी सहायक होते हैं। उपन्यासों और नाटकों में जो देश-काल का वर्णन रहता है ( नाटकों में यह वर्णन रङ्गमञ्च के संकेतों में रहता है ), वह कथा को स्पष्टता प्रदान करने के लिए ही होता है किन्तु कहीं-कहीं जहाँ प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन प्राजाता है वहाँ वह आलम्बन या उद्दीपनरूप से रस का भी उद्दीपक और पोषक होता है। मेरा अभिप्राय यह है कि उपन्यास आदि अाजकल की उपज की साहित्यिक विधाओं का भी रस की दृष्टि से अध्ययन हो सकता है । नाटक की वस्तु की भाँति उपन्यास और कहानियों का अङ्खों और दृश्यों में ता नहीं किन्तु सन्धियों, अवस्थाओं तथा अर्थप्रकृतियों में तो हो ही सकता है। प्रोफेसर कन्हैयालाल सहल और डाक्टर सत्येन्द्र ने ऐसा उद्योग भी किया है । महाकाव्य में तो सन्धियों के रखने का विधान है ही, वह उपन्यास के उतार-चढ़ाव में भी दिखाया जा सकता है। जिस प्रकार रीतियाँ संगठन के सौष्ठव के कारण रस की उप- कारक होती हैं उसी प्रकार कथावस्तु का संगठन भी रस का उपकारक होता है। हमारे यहाँ प्रकृति का वर्णन प्रायः उद्दीपनरूप से हुआ है । शास्त्रीय विचार से प्रकृति के प्रति आलम्बनरूप से रतिभाव रखना रस' का उत्पादक नहीं, केवल भाव का ही उत्पादक होगा। शास्त्रीय पद्धति केवल दाम्पत्य रति को ही गौरवपूर्ण स्थान देती है किन्तु जिस प्रकार वात्सल्य ने अपना स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित कर लिया है उसी प्रकार प्रकृति भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित कर अपना एक विशेष रस बना लेगी या रति की शास्त्रीय परिभाषा को कुछ शिथिल करना पड़ेगा । आचार्य शक्लजी ने प्रकृति के पालम्बनरूप से वर्णन का विशेष पक्ष लिया है और उन्होंने हरी घास और बाँसों के झुरमुटों का काव्यमय वर्णन भी किया है :-- 'भूरी हरी-भरी घास, पास-पास फूली सरसों है, पीली-पीली विदियों का चारों ओर है प्रसार । कुछ दूर, विरल, सघन फिर और भागे, एक रंग मिला चला गया पीत पारावार ॥
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