काव्य के चर्य-विभाव सम्बन्धी उद्दीपन हैं और शेर का गर्जना,दाँत दिखाना, पंजा उठाना ये आलम्बन- गत उद्दीपन होंगे। श्रालम्बन : काव्य में, चाहे वह अनुकृत हो चाहे प्रगीत और चाहे वह प्रबन्ध हो चाहे मुक्तक, पालम्बन अवश्य रहता है। जिस प्रकार बिना खुंटी के कपड़े टिक नहीं सकते उसी तरह बिना पालम्बन के भाव स्थिर नहीं रह सकते । यही नाटक, महाकाव्य, उपन्यास आदि में नायक, प्रतिनायक, नायिका आदि के रूप में प्राता है । इसी की शोभा, उदारता, वीरता, क्रूरता आदि का वर्णन कर भाव जाग्रत किये जाते हैं। हमारे यहाँ भाव की प्रधानता है किन्तु भाव के विस्तृत अर्थ में विचार भी शामिल हैं नहीं तो नीति के छंदों को कोई स्थान न मिलेगा। सूर-तुलसी में कृष्ण और राम के शील, शोभा, शूरत्व, औदार्य आदि गुणों का भरपूर वर्णन है । इस शोभा के वर्णन में अप्रस्तुतरूप से उपमानो में प्रकृति का भी बहुत-सा अंश आजाता है और जड़ तथा चेतन का साम्य उपस्थित कर दिया जाता है :- 'देखि सखी अधरन की लाली। मनि मरकत ते सुभग कलेवर ऐसे हैं बनमाली ।। मनो प्रात की घटा साँवरी तापर अरुन प्रकास । ज्यों दामिनि बिच चमकि रहत है फहरत पीत सुबास ॥ कीधौं तरुन तमाल बेलि चढ़ि जुग फल बिंबा पाके । नासा कीर श्राइ मनो बैठो लेत बनत नहिं ताके ।' - सूरपन्चरत्न (रूपमाधुरी, पृष्ठ ६) सूर ने नेत्रों का वर्णन पालम्बनरूप से भी किया है और आश्रयरूप से भी। आलम्बनरूप में वे रूप का अङ्ग रहते हैं और प्राश्रयगत होकर रूप- पिपासा की शान्ति के माध्यमरूप से वणित होते हैं :- ग्रालम्बनपक्ष: 'ऊधो ! हरिजू हित जनाय चित चोराय लयो ऊधो ! चपल नयन चलाय अंगराग दयो ।' "सरद-बारिज सरिस दृग भौंह काम-कमान । क्यों जीवहिं बेधे उर लगे विषम-बान ?' 'मृगी मृगज-लोचनी भए. उभय एक प्रकार । नाद नयनबिप-तते न जान्यो मारनहार ॥' -भ्रमरगीतसार (पृष्ठ १३ तथा १४)
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