सिद्धान्त और अध्ययन भाव शब्द हमारे यहाँ व्यापक है, उसमें भाव (स्थायी और सञ्चारी) के साथ विभाव (पालम्बन और उद्दीपन) भी प्राजाते हैं। यह शब्द संकुचित अर्थ में भी लिया जाता है जिसमें वह रस की एक अपूर्ण विभाव अवस्था माना जाता है। पहले हम विभाव का ही वर्णन करेंगे । काव्य की कोई-सी विधा हो, उसमें प्रायः भाव और विभाव दोनों ही होंगे । प्राचार्य शुक्लजी के शब्दों में हम कह सकते हैं कि संसार में जैसे भावों की अनेकरूपता है वैसे ही विभावों की भी। भाव का उद्गम यद्यपि आश्रय में होता है तथापि उनका सम्बन्ध किसी वाह्य वस्तु से अवश्य होता है चाहे वह वस्तु कल्पित हो या वास्तविक । हमारे भाव किसी के प्रति होंगे अथवा किसी को देखकर जाग्रत हुए होंगे, वही हमारे भाव का आलम्बन होगा । यदि प्रगतिवादी कवि किसान और मजदूर को अपनी कविता का विषय बनाता है तो वही उसका पालम्बन है । उचित आलम्बन के बिना भावशवलता प्राप्त नहीं कर सकते । आचार्य शुवलजी की प्रतिभा विषय- प्रधान थी, इसीलिए उन्होंने पालम्बन की अज्ञेयता के कारण रहस्यवाद का विरोध किया है किन्तु कोई वस्तु नितान्त अज्ञेय नहीं होती। उसकी अज्ञेयता ही उस अंश में उसे ज्ञेय बना देती है। पालम्बन के साथ ही उद्दीपन का भी महत्त्व है क्योंकि वे रस के जाग्रत रखने में सहायक होते हैं। भाव के जगाने में जो मुख्य कारण होते हैं वे तो आलम्बन कहलाते हैं, जैसे वीर के स्थायी उत्साह के लिए सामने खड़ा हुआ शत्रु आलम्बन है किन्तु सामने खड़ी हुई चतुरङ्ग चमू और जुझाऊ बाजे तथा शत्रु की दर्पोक्तियाँ, उसका गर्जना-सर्जना, शस्त्र-सञ्चालन आदि चेष्टाएँ भी अपना महत्त्व रखती हैं। वे उत्साह को जाग्नत रखने और उसे उद्दीप्त रखने में सहायक होती है। देवजी ने पालम्बन और उद्दीपन की इस प्रकार व्याख्या की है :---- 'रस उपजै प्रालम्बि जिहि, सो पालम्बन होइ । रसहि जगावै दीप ज्यों, उद्दीपन कहि सोइ ।।" . देवकृत भावविलास (पृष्ठ ८) . उद्दीपन दोनों ही प्रकार के होते हैं--(१) पालम्बनगत अर्थात् पालम्बन की उक्तियाँ और चेष्टाएँ आदि और (२) बाह्य अर्थात् वातावरण से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुएँ । इनको हम चेतन और अचेतन कह सकते है। ऊपर के उदाहरण----चतुरङ्ग चमू, जुझाऊ बाजे आदि वाह्य उद्दीपन हैं और शत्रु का गर्जना-तर्जना, दर्पोक्तियाँ आदि पालम्बनगत उद्दीपन है । उसी प्रकार यदि भय का आलम्बन शेर हो तो निर्जन .बन, अंधकार ये वाह्य या वातावरण-
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