८ : काव्य के वर्ण्य ( रस-विभाव और भाव) काव्य के प्रायः दो पक्ष माने जाते हैं----भावपक्ष और कलापक्ष । भावपक्ष में काव्य के समस्त वर्ण्य विषय आजाते हैं और कलापक्ष में वर्णन-शैली के सब अङ्ग सम्मिलित हैं। ये दोनों पक्ष भावपक्ष और एक-दूसरे के सहायक और पूरक होते है । भावपक्ष कलापक्ष का सम्बन्ध काव्य की वस्तु से है और कला का सम्बन्ध आकार से है । वस्तु और आकार एक-दूसरे से पृथक् नहीं हो सकते । कोई वस्तु आकारहीन नहीं हो सकती है और न आकार वस्तु से अलग किया जा सकता है। वैसे तो व्यापक दृष्टि से भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही रस से सम्बन्धित है क्योंकि कलापक्ष के अन्तर्गत जो अलङ्कार, लक्षणा; व्यन्जना और रीतियाँ हैं वे सभी रस की पोषक हैं तथापि भावपक्ष का रस से सीधा सम्बन्ध है। वह उसका प्रधान अङ्ग है, कलापक्ष के विषय उसके सहायक और पोषक हैं। प्राचार्य विश्वनाथ ने रस को काव्य की आत्मा माना है। संक्षेप में तो रस प्रास्वादनजन्य आनन्द को कहते हैं किन्तु पारिभाषिक शब्दावली में हम उसके रूप को इस प्रकार कहेंगे---विभाव, अनुभाव और . रस सञ्चारी भावों से मिलकर वासनारूप (संस्काररूप) स्थायी भाव जब अपनी व्यक्त और पूर्ण परिपक्वावस्था , को पहुँचता है तब वह आत्मा की सहज सात्विकता के कारण रस का प्रानन्दमय रूप धारण कर लेता है। प्राचीन कवियों ने इसी बात को अपनी काव्यमय भाषा में कहा है :- 'जो विभाव अनुभाव अरु, विभचारिनु करि छोइ । थिति की पूरन यासना, सुकवि कहत रस सोइ ॥" -देवकृत भावविलास ( पृष्ठ ६५) . रस का सीधा वर्णन तो नहीं होता किन्तु वह विभावादि सामग्नी द्वारा व्यजित होता है । रस और उसकी सामग्री का सम्बन्ध सामने के पृष्ठ पर दिये हुए चक्र से स्पष्ट हो जायगा।
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