सत्यं शिवं सुन्दरम्- सौन्दर्य का मान भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है । ___सौन्दर्य वाह्य रूप में ही सीमित नहीं है वरन् उसका आन्तरिक पक्ष भी है । उसकी पूर्णता तभी आती है जब आकृति गुणों की परिचायक हो । सौन्दर्य का प्रान्तरिक पक्ष ही शिवं है । वास्तव में सत्य, शिव और सुन्दर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में एक-दूसरे के अथवा अनेकता में एकता के रूप हैं । सत्य ज्ञान की अने- कता में एकता है, शिव कर्मक्षेत्र की अनेकता की एकता का रूप है। सौन्दर्य भाव-क्षेत्र का सामञ्जस्य है । सौन्दर्य को हम वस्तुगत गुणों वा रूपों के ऐसे सामञ्जस्य को कह सकते हैं जो हमारे भावों में साम्य उत्पन्न कर हमको प्रस- न्नता प्रदान करे तथा हमको तन्मय करले । सौन्दर्य रस का वस्तुगत पक्ष है। रसानुभूति के लिए जिसे सतोगुण की अपेक्षा रहती है वह सामञ्जस्य का ही आन्तरिक रूप है । सतोगुण एक प्रकार से रजोगुण और तमोगुण का सामञ्जस्य ही है। उसमें न तमोगुण-की-सी निष्क्रियता रहती है और न रजोगुण-की-सी उत्तेजित सक्रियता । संतुलनपूर्ण सक्रियता ही सतोगुण है । इसी प्रकार के सौन्दर्य की सृष्टि करना कवि और कलाकार का काम है। संसार में इस सौन्दर्य की कमी नहीं । कलाकार इस सौन्दर्य पर अपनी प्रतिभा का पालोक डालकर इसे जनता के लिए सुलभ और ग्राह्य बना देता है। . . ____ कवि जहाँ पर सामञ्जस्य का प्रभाव देखता है वहाँ वह थोड़ी काट-छाँट के साथ सामञ्जस्य उत्पन्न कर देता है । वही सामञ्जस्य पाठक वा श्रोता के मन में समान प्रभाव उत्पन्न कर उसके प्रानन्द का विधायक बन जाता है। सौन्दर्य की इतनी विवेचना करने पर भी उसमें कुछ अनिर्वचनीय तत्त्व रहता है, जिसके लिए बिहारी के शब्दों में कहना पड़ता है-~-'वह चितवन और कछू जिहि बस होत सुजान'। इसी अनिर्वचनीयता के कारण प्रभाववादी आलोचना और रुचि को महत्त्व मिलता है ।
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