पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/६०

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सातवाँ अध्याय अलाप लिये एक राग के अलाप में जिन-जिन बातों का प्रयोग करना चाहिये, सब पिछले अध्याय में बतला दिया गया है। अब इस अध्याय में एक राग के स्वर-विस्तार करने का ढंग दिया जाता है। इसी क्रम को ध्यान में रखकर आप किसी भी अन्य राग का स्वर-विस्तार कर सकते हैं। मर्व प्रथम सरल सा राग यमन- कल्याण ही लीजिये। एक यमन-कल्याण-- यमन कल्याण में समस्त स्वर तीव्र लगते हैं। वादी गान्धार, सम्बादी निषाद है और जाति सम्पूर्ण-सम्पूर्ण है। गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर है। बस इतनी बातों के आधार से आप इसका अलाप कर सकते हैं। मुख्यांग अर्थात् पकड़ को भी ध्यान में रखना आवश्यक है ताकि राग का रूप यमन से बदल कर कुछ और न हो जाये। इसकी पकड़ नि, रेगा, मंग, परेमा है । पकड़ के अर्थ यह कभी नहीं समझने चाहिये कि आप जब तक इन स्वरों को ठीक इसी रूप में नहीं लगायेंगे, राग स्पष्ट होगा ही नहीं, बल्कि 'पकड़' का आशय यही है कि कभी-कभी नि रे गा' और कभी-कभी 'पारे सा लगता रहना चाहिये । साथ-साथ गान्धार के वादित्व का भी ध्यान रखना चाहिये। देखिये, इसे कैसे किया जाता है (१)-नि रेग, रेग, मंग, रेग, रेसा, सानि, धप, पधप, धनिरे, गरे, गर्मप, मग, परे, सा, निरसा। प्रत्येक अल्प विराम ( कॉमा) के बाद कुछ काल तक ठहर कर स्वर को लम्बा करना चाहिये । जैसे 'निरेग' को 'निऽरेऽगsss' कहेंगे । इस प्रकार आप देखेंगे कि इस अलाप में 'पकड़' के स्वरों को ध्यान में रखते हुए ही 'गा' स्वर को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। अब हम केवल 'सा' के अतिरिक्त तीन स्वरों के आधार से नये-नये स्वरूप बनाते हैं। जैसे:-निरेगा, रेगा, रेनि, रेग, रेसा, रेनि, निसा, निरे, निग, गारेगा, गासारे, रेगा, निसा, सारे, रेगा, सागा, रेगा, सारे. सागा, रेगा, गारे, सारे, रंगासारेनि, रे, निरेसा । आप चाहें तो इनके और भी अधिक रूप बना सकते हैं। परन्तु नये-नये रूप बनाते समय यह नहीं भूलना चाहिये कि जो भी मेल बनें वह कुछ न कुछ नवीनता लिये हुए होने चाहिये। एक ही स्वर- समुदाय की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिये। और न इन स्वर समुदायों को रटने का प्रयत्न करना चाहिये बल्कि समझ कर स्वयं निर्माण करने का प्रयत्न करना चाहिये। 1