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साहित्य-सीकर

होमर की इलियड नामक काव्य के अनुवाद ही की बदौलत, अमीर हो गया। परन्तु, याद रहे, यह विलायत का जिक्र है, यहाँ का नहीं। यहाँ विद्या और शिक्षा की जैसी दशा है उसके होते यहाँ वालों को विलायत के ग्रन्थकारों के पुरस्कार का शतांश क्या सहस्रांश भी मिलना असम्भव है। यहाँ उनकी लिखी हुई पुस्तकें ही काई प्रकाशक मुफ़्त में छाप दे तो गनीमत समझना चाहिये। पुरस्कार तो तब मिलेगा जब पुस्तक अच्छी होगी; हजार दो हज़ार कापियाँ बिकने की उम्मीद होगी। प्रकाशकों के छापेखाने में कारूँ का खजाना नहीं गड़ा जो रद्दी किताबों की लिखाई दो दो चार-चार तोड़े देते चले जायँ।

योरप और अमरिका में प्रकाशक लोग ग्रंथकारों को एक ही बार पुरस्कार देकर फुरसत नहीं पा लेते। किसी पुस्तक का कापी-राइट (स्वत्व) मोल लेकर जो कुछ ठहर जाता है वह तो वे देते ही हैं; पर इसके सिवा वे प्रत्येक संस्करण पर कुछ "रायल्टी" भी देते है। अर्थात् जिस पुस्तक का स्वत्व खरीदत हैं उसकी प्रत्येक आबृत्ति पर फी सैकड़ा या फी हजार, जो निश्चय हो जाता है वह भी ग्रन्थकार को बराबर देते रहते हैं। यदि कोई पुस्तक चल गई तो लिखने वाले का दुःख-दरिद्र एक ही पुस्तक के बदौलत दूर हो गया समझिये।

पुस्तक-प्रणेता बहुधा निर्धन हुआ करते हैं। अतएव उनकी पुस्तकों को छापने का यदि किसी की सहायता से प्रबन्ध न हुआ तो उनका अप्रकाशित रह जाना असभव नहीं। क्योंकि रुपया पास न होने से मुफ़्त में तो किताब छपती नहीं। इसीसे पस्तक-प्रणेताओं को पुस्तक प्रकाशकों के आश्रय की बड़ी जरूरत रहती है। निर्धन आदमी ने यदि किसी तरह माँग-जाँच कर अपनी कोई पुस्तक खुद ही प्रकाशित की और उसकी बिक्री न हुई तो उस बेचारे का सारा उत्साह मिट्टी में मिल गया समझना चाहिए और धनवान आदमी के लिए भी अपनी लागत से पुस्तकें छपाना, और यदि न बिकें तो हानि उठाना