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१२—पुस्तक-प्रकाशन

पुस्तक-प्रणयन का काम जितने महत्व का है, पुस्तक प्रकाशन का भी उतने महत्व का है। किम्बहुना उससे भी अधिक महत्व का है। क्योंकि पुस्तक चाहे जितनी उपयोगी, आवश्यक और लाभदायक क्यों न हो, यदि वह प्रकाशित न हुई तो उसका निर्माण ही बहुत कुछ व्यर्थ समझना चाहिये। पुराने ज़माने में पुस्तक प्रकाशन के उपाय वैसे सुलभ न थे जैसे आजकल हैं। इसी से अनन्त ग्रंथ-रत्न नष्ट हो गये; और यदि उनमें से कहीं कोई अब तक छिपे-छिपाये पड़े भी हैं तो उनका होना न होने के बराबर है। क्योंकि उनके अस्तित्व से सर्व साधारण का लाभ नहीं पहुँचता। जिस समय छापने की कला का आविष्कार नहीं हुआ था। उस समय किसी नवीन ग्रन्थ की नकल करने में बड़ा परिश्रम पड़ता था। इसी से अमीर आदमियों को छोड़कर, साधारण जनों के लिये बहुत परिमाण में, अच्छे-अच्छे ग्रन्थों का अवलोकन, परिशीलन और संग्रह प्रायः असम्भव सा था। अतएव विद्या-वृद्धि में बहुत बाधा आती थी।

इस समय छापे के यन्त्रो की बदौलत पुस्तकों को छपकर प्रकाशित होना, पहले की अपेक्षा, बहुत आसान हो गया है। जो देश अधिक सुरक्षित है, जहाँ विद्या और कला-कौशल की खूब अभिवृद्धि है जहाँ पढ़ने लिखने की विशेष चर्चा है, वहाँ साल में सैकड़ों नहीं हज़ारों उत्तमोत्तम ग्रन्थ बनते हैं, निकलते और हाथों हाथ बिक जाते हैं। योरप और अमेरिका में लाखों, करोड़ों, रुपये की पूँजी लगाकर कितनी ही कम्पनियाँ