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साहित्य-सीकर

न हो जो हमने समझी है।

इस ऐक्ट के "पास" हो जाने से अब अनुवादकों की खूब बन आवेगी। विलायत में छपी हुई पुस्तकों का अनुवाद करने की तो कोई रोक-टोक रही ही नहीं। इस देश में भी छपी हुई पुस्तकों का अनुवाद, मूल पुस्तक के पहले पहल प्रकाशित होने के दस वर्ष बाद, जिसका जी चाहे अन्य किसी भाषा में आनन्द से कर सकेगा। बङ्किमचन्द्र और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के ग्रन्थ अब सर्व-साधारण का माल हो गये, उनका अनुवाद करने के लिये अब किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं। रमेशचन्द्रदत्त और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जिन ग्रन्थों को निकले दस वर्ष हो चुके उनका भी हिन्दी अनुवाद पुस्तक-प्रकाशक मंडलियाँ, कम्पनियाँ और परिपदें अब निडर होकर कर सकती है।

इस सम्बन्ध में एक बात हमें कहना है। यदि कोई किसी की पुस्तक का ऐसा भ्रष्ट अनुवाद करे जिससे मूल पुस्तक का आशय कुछ का कुछ प्रकट होने लगे और जिससे मूल ग्रंथकार के गौरव की हानि हो तो उसका क्या इलाज होगा? कानून में तो कुछ इलाज तजबीज किया गया नहीं। हम देखते है कि कोई-कोई अनुवादक अपने अनुवाद में मूल पुस्तक के आशय की बड़ी ही दुर्दशा करते हैं। इतनी दुर्दशा कि अनुवाद पढ़ते समय मूल पुस्तक के लेखक पर तरस आता है। ऐसे अनुवादकों के पंजे से ग्रन्थकारों को बचाने का इस कानून में काई उपाय नहीं बताया गया। यह दुःख की बात है।

लेने वाले या तैयार कराकर बेचने वालों के फोटो भी अब उनकी अनुमति के बिना, ५० वर्ष तक, कोई कहीं निकाल सकता। चोरी या सीनेजोरी की तो बात ही और है।

यदि कोई किसी अखबार या सामयिक पुस्तक में काई लेख प्रका- शित करें तो उस लेख को वहाँ से उठाकर पुस्तकाकार प्रकाशित करने का किसी और आदमी को अधिकार नहीं। लेखक की जिन्दगी के बाद