दफे निकलने के ५० वर्ष बाद तक किसी को उसे छापने और ४० वर्ष बाद तक उस का अनुवाद करने का अधिकार नहीं। यदि दफा १८ का वही मतलब है जैसा कि हमने समझा है तो यह कानून बहुत हानिकारक है। गवर्नमेंट की प्रकाशित पुस्तकें प्रजा ही के रुपये से प्रकाशित होती हैं। अतएव प्रजा को भी उनके प्रकाशन का हक होना चाहिये। आशा है, कोई वकील महाशय उदारतापूर्वक इस दफा का ठीक-ठीक आशय समझाने की कृपा करेंगे। अगर कोई मसकटरी रेगुलेशन, या पेनलकोड, या गैजिटिर या और कोई ऐसी ही पुस्तक या उसका अनुवाद प्रकाशित करना चाहे तो कर सकता है या नहीं। क्या इस तरह की पुस्तकें "Government Publication" की परिभाषा में नहीं? यदि हैं तो यह कानून प्रजा के हित का बहुत बड़ा बाधक है। कल्पना कीजिए कि गवर्वमेंट ने एक पुस्तक अँगरेजी में प्लेग पर प्रकाशित की और उसमें प्लेग से बचने के उपाय बतलाये। ऐसी पुस्तक की जितनी ही अधिक कापियाँ छपाई और बेची या वितरण की जायँ उतना ही अच्छा। ऐसी पुस्तक के अनुवाद देशी भाषाओं में प्रकाशित करने की तो और भी अधिक आवश्यकता है। पर कानून की रूप से मूल पुस्तक तद्वत् छपाने के लिये ५० वर्ष और अनुवाद के लिए १० वर्ष ठहरना चाहिये और इतने दिन ठहरने से उद्देश्य की सिद्धि ही नहीं हो सकती। रही गवर्नमेंट से अनुमति लेने की बात। सो ऐसी अनुमति शीध्र और सहज में नहीं प्राप्त हो सकती। इस दशा में इस नये कानून का यह अंश प्रजा के लिये बड़ा हानिकारक है। बड़े दुःख की बात है कि इस कानून का मसविदा महीनों विचाराधीन रहा। कौंसिल के देशी मेम्बरों में से अनेक वकील और बैरिस्टर हैं। उन्होंने उसे पढ़ा और उस पर विचार भी किया। फिर भी यह दोष किसी के ध्यान में न आया। बड़ी अच्छी बात हो जो हमने इसका आशय समझने में भूल की हो—दफा १८ की वह मंशा
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