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हिन्दी शब्दों के रूपान्तरण

हूँ, तो आप मेरे लेख देख कर जान सकते हैं। मैं जरा भी हठ नहीं करता। मैं कहता हूँ कि आपका प्रयास बिलकुल ही व्यर्थ है। आज आप यह कहते हैं, कल कहेंगे 'इँगलैंड' न लिखकर हमारी तरह 'इँगलेंड' लिखा करो; परसों कहेंगे 'गवर्णमेण्ट' और 'लण्डण' लिखना ही शुद्ध है। अच्छा यह तो बताइये, अधिकांश लेखक पञ्चम वर्ण का काम अनुस्वार से लेते हैं। आपके व्याकरण से तो ऐसा करना गलत है। फिर इसके लिये आपने नियम क्यों नहीं बनाया?

ग॰—अनुसार लिखना तो विकल्प से रायज हो गया।

दे॰—खूब कहा! रिवाज में बड़ी शक्ति है। अनुसार की तरह आप 'दिए', 'लिए' आदि रूपों को भी विकल्प से रायज समझिए। जो लोग इस तरह के रूप लिखते हैं उन्हें लिखने दीजिये। आप न लिखिए। आप अपनी पसन्द के लिखें। जो लोग 'दे दी' के बदले 'दे दियो' और 'ले ली' के बदले 'ले लियी' लिखते हैं उन्हें भी वैसा लिखने को कोई मना नहीं कर सकता। व्याकरण बनाने वालों को हजार दफे गरज होगी तो वे ऐसे रूपों का भी उल्लेख अपने ग्रन्थों में करेंगे। क्योंकि लेखक उन्हें जान-बूझकर और सही समझ कर वैसा लिखते हैं। मेरी राय में व्याकरण के नियमों के सुभीते के लिए पहले ही से शब्दों को एकरूपता देने की चेष्टा बड़ी ही अनोखी बात है। महाराज, रिवाज भी कोई चीज है। उसके सामने नियम-उवम सब रक्खे रहते हैं। भारत के अन्य सारे प्रान्तों के लोग सिर ढँकते हैं, पर बंगाली खुले ही सिर रहते हैं। यह रिवाज ही की कृपा का फल है।

ग॰—आप तो रिवाज के बड़े ही भक्त मालूम होते हैं।

दे॰—अनुस्वार के सम्बन्ध में आपने भी तो रिवाज को मान दिया