यह है कि पाठक बालेंटाइन साहब के उस उद्देश को भी समझ जायँ जिससे प्रेरित होकर उन्होंने यह ग्रन्थ लिखा और साथ ही उनकी संस्कृतज्ञता का अन्दाजा भी उन्हें हो जाय। आपकी संस्कृत बड़ी ही सरल और सुबोध है। पुस्तक भर में आपने इसी तरह की प्राञ्जल भाषा लिखी है। आपको संस्कृत में पद्य-रचना का भी अभ्यास था। पाठक कह सकते हैं कि, सम्भव है, उन्होंने इस पुस्तक को किसी बनारसी पण्डित की सहायता से लिखा हो। ऐसी शङ्का के लिये जगह अवश्य है। काशी में, विशेष करके कालेज में, पण्डितों के बीच रह कर उन्होंने पण्डितों से सहायता ली हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। परन्तु बालेंटाइन साहब की संस्कृत पण्डितों की जैसी लच्छेदार संस्कृत नहीं। वह इतनी सरल और स्वाभाविक है कि प्रकाण्ड पाण्डित्य की गन्ध उससे जरा भी नहीं आती। वह पुकार पुकार कर कह रही है कि मैं काशी के पण्डितों की करामात नहीं। इस भीतरी साध्य के सिवा हमारे पास पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र का भी साक्ष्य है। वे बालेंटाइन साहब के समय ही में बनारस-कालेज में थे और बालेंटाइन साहब ही की सूचना के अनुसार लघुकौमुदी का अनुवाद उन्होंने हिन्दी में किया था। इस प्रबन्ध के लेखक ने उनके मुख से सुना था कि बालेंटाइन साहब अच्छे संस्कृतज्ञ ही न थे, किन्तु अच्छे संस्कृत-वक्ता और अच्छे संस्कृत लेखक भी थे।
१८४४ ईसवी में जे॰ म्यूर साहब बनारस-कालेज के प्रधानाध्यापक थे। वे भी संस्कृत में अच्छी योग्यता रखते थे। यह बात उनके एक ग्रन्थ से प्रमाणित है। यह ग्रन्थ बड़ी बड़ी पाँच जिल्दों में है। इसका नाम है—"Original Sanskrit Texts on the Origin and History of the People of India, their Religion and Institutions." इसके सिवा बालेंटाइन साहब ने भी