योरप और भारत के शास्त्रीय सिद्धांतों में जहाँ-जहाँ विरोध है वहाँ-वहाँ योग्यतापूर्वक वह विरोध स्पष्ट करके दिखलाया गया है। परन्तु किसी के मत सिद्धान्त या विवेचन पर कटाक्ष नहीं किया गया। एक उदाहरण लीजिये। गौतम-सूत्रों के आधार पर बालेंटाइन साहब ने एक जगह अपवर्ग, अर्थात् मोक्ष की व्याख्या करके यह लिखा—
"पुनर्दुंःखोत्पत्तिर्यथा न स्यात् विमोक्षो विध्वंसः तथा च पुनर्दुंखोत्पत्तिप्रतिबन्धको दुखध्वंसः परमपुरुषार्थस्तत्वज्ञानेन प्राप्तव्य इति गौतममतम।"
इसके आगे ही आपने अपने, अर्थात् योरप के तत्वज्ञानियों के मत का इस प्रकार निदर्शन किया—
"अस्मन्मतं तु नैवंविधदुःखध्वसमात्र परमपुरुषार्थः। तस्याभावरूपतया तुच्छत्वेन स्वतो मनोहरत्वाभावात्। किन्तु परमपुरुषार्थे दुःखध्वसादन्यत् किमपि स्पृहणीयमस्ति। यद्वा तद्वा तदस्तु, तत् सर्वथा सर्वज्ञस्य परमदयालोः परमेश्वरस्यैव प्रसादेन तद्भक्तैः प्राप्यमस्तीति।"
इसी तरह बराबर आप, जहाँ जहाँ आवश्यकता थी, अपना मत देते गये हैं। पर कहीं भी अनुचित आक्षेप किसी धर्म, मत या सिद्धान्त पर नहीं किया।
बालेंटाइन साहब की पूर्वोक्त पुस्तक के आरम्भ में जो उपोद्घात, अँगरेज़ी में है उसमें आपने कितनी ही ज्ञातव्य बात का समावेश किया है। उसमें आपके उदारतापूर्ण विचारों की बड़ी ही भरमार है। आपने तत्वज्ञान को सब ज्ञानों से श्रेष्ठ समझ कर पहले उसी का विचार किया है। पुस्तक के उत्तरार्द्ध के आरम्भ में आपकी लिखी हुई एक छोटी सी भूमिका, संस्कृत में भी है। उससे भी आपके हृदय के औदार्य्य का सोता सा बह रहा है। उसका कुछ अंश हम नीचे उद्धृत करते हैं—