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योरप के विद्वानों के संस्कृत-लेख और देव-नागरी-लिपि

जाँय, पर, यदि उसके विषय में भी कुछ कहेंगे तो अपनी ही भाषा में, लिखेंगे तो अपनी ही भाषा में, व्याख्यान देंगे तो भी अपनी ही भाषा में। संस्कृत पढ़कर ये लोग अधिकतर भाषा विज्ञान और संस्कृत शास्त्रों के सम्बन्ध ही में लेख और पुस्तकें लिखते हैं। कोई प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद करते हैं, कोई वैदिक-साहित्य-सागर में गोता लगा कर नये नये तत्वरत्न ढूँढ निकालते हैं; कोई साहित्य की अन्य शाखाओं का अध्ययन करके उसकी तुलनामूलक समालोचना करते हैं। परंतु यह सब वे अपनी ही मातृभाषा में करते हैं। उन्हें संस्कृत साहित्य से सम्बन्ध रखनेवाली बातें संस्कृत ही में लिखने की आवश्यकता भी नहीं। संस्कृत में लिखने से कितने आदमी उनके लेख और पुस्तकें पढ़ सकें? बहुत ही कम। और जो पढ़ भी सके उनमें से भी बहुत ही कम भारतवासी पंडित ऐसी पुस्तकें मोल ले सकें। शायद इसी से योरप के संस्कृतज्ञ संस्कृत भाषा और देवनागरी-लिपि में अपने विचार प्रकट करने का अभ्यास नहीं करते। अतएव यदि कोई यह कहे कि उनमें संस्कृत लिखने का माद्दा ही नहीं तो उसकी यह बात न मानी जायगी। अभ्यास से क्या नहीं हो सकता? योरपवाले सैकड़ों काम ऐसे करते हैं जिन्हें देखकर अथवा जिनका वर्णन पढ़कर हम लोगों को अपार आश्चर्य है। अतएव अभ्यास करने से अच्छी संस्कृत लिख लेना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं। वह उनके लिये सर्वथा साध्य है। जो लोग भारत आते हैं और यहाँ कुछ समय तक रहते हैं उनके लिए तो यह बात और भी सहल है।

इस पर भी कई विद्वान् योरप में ऐसे हो गये हैं, और अब भी कई मौजूद हैं, जिनकी लिखी संस्कृत-भाषा देखकर मालूम होता है कि वह उन्हें करतलगत आमलकवत् हो रही है। डाक्टर बूलर और पिटर्स बिना रुके संस्कृत में बातचीत कर सकते थे। कुछ समय हुआ, रूस के एक विद्वान् भारत आये थे वे भी अच्छी संस्कृत बोल लेते थे।