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साहित्य-सीकर

बस फिर क्या था योरप के कितने ही पण्डित काव्य, नाटक, इतिहास, धर्म्मशास्त्र आदि का अध्ययन जी लगाकर करने लगे। जर्मनी के वान शेलीजल और वान हम्बौल आदि प्रकाण्ड पण्डितों ने बड़ी ही सरगरमी से संस्कृत सीखना शुरू किया। जब इन लोगों को वेद पढ़ने और समझने की शक्ति हो गई तब इन्होंने अपना अधिक समय वैदिक ग्रन्थों ही के परिशीलन में लगाना आरम्भ किया। इससे उनकी आँखें खुल गईं। संस्कृत-शिक्षा का प्रचार इंगलिस्तान और जर्मनी के सिवा फ्रांस, हालैंड, अमेरिका और रूस तक में होने लगा। वैदिक ग्रन्यों को इन विद्वानों ने एक स्वर से दुनिया के सब ग्रन्थों से पुराना माना और उसके सम्बन्ध में नाना प्रकार की चर्चा आरम्भ हो गई। तब से आज तक योरप में कितने ही विद्वान् ऐसे हो गये हैं और कितने ही होते जा रहे हैं जिनकी कृपा से संस्कृत साहित्य के नये-नये रत्न हम लोगों को प्राप्त हुए हैं और अन्य प्राप्त होते जाते हैं।

अंगरेज अधिकारियों ने संस्कृत सीखने की ओर ध्यान तो अपने स्वार्थसाधन के लिए दिया था—उन्होंने तो इसलिए पहले-पहल संस्कृत सीखने की जरूरत समझी थी। जिसमें हम लोगों की रीति-रस्में आदि जानकर भारत पर बिना बिघ्न-बाधा के शासन कर सकें—पर संस्कृत-साहित्य की श्रेष्ठता ने उन लोगों को भी उसका अध्ययन करने के लिए लाचार किया जिनका शासन से क्या, इस देश से भी, कुछ सम्बन्ध न था। यदि योरपवाले संस्कृत की कदर न करते तो हज़ारों अनमोल ग्रन्थ यहीं कीड़ों की खूराक हो जाते। जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड आदि के पुस्तकालयों में क्यों वे पहुँचते और क्यों प्रतिवर्ष नये नये ग्रन्थों का पता लगाया जाता? आज तक योरप के विद्वानों ने जो अनेकानेक अलभ्य ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं, अनेकानेक वैदिक रहस्यों का उद्घाटन किया है, हमारे और अपने पूर्वजों के किसी समय एकत्र एक ही जगह रहने और एक भाषा बोलने के विषय में जो प्रमाणपूर्ण