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साहित्य-सीकर

१७९० ईसवी में छपा। इससे बड़ा काम निकला। अंगरेज जजों को भारतीय पण्डितों की जो पद-पद पर सहायता दरकार होती थी उसकी जरूरत बहुत कम रह गई। भारतवासियों को अपने धर्मशास्त्र के अनुसार न्याय कराने में तब सुभीता हो गया।

इसके बाद संस्कृत नाटकों का नाम सुनकर सर विलियम जोन्स ने नाटकों का पता लगाना आरम्भ किया और शकुन्तला नाटक को पढ़कर उसका अनुवाद अंगरेजी में किया। इस नाटक ने योरप के विद्यारसिक जनों की आँखें खोल दीं। तब तक योरप वाले भारतवासियों को, जैसा ऊपर कहा जा चुका है निरे जंगली समझते थे। उनका ख्याल था कि भारत में कुछ भी साहित्य नहीं है और जो कुछ है भी वह किसी काम का नहीं। तब तक योरप वालों की दृष्टि में भारतवासी अत्यन्त ही घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे। घृणा की दृष्टि से तो वे अब भी देखे जाते हैं, पर अब और तब में बहुत अन्तर है। तब हम लोगों की गिनती कुछ-कुछ अफ्रीका की हाटेनटाट, पुशम्यन और जूलू आदि महा असभ्य जातियों में थी और भारत की कुछ कदर यदि की जाती थी तो सिर्फ इसलिए कि उसकी बदौलत करोड़ों रुपये विलायत ले जाने को मिलते थे। पर शकुन्तला को पढ़कर उन लोगों का यह भाव एकदम तिरोहित हो गया। शकुन्तला की कविता, उसके पात्रों का चरित्र, उसकी भाव प्रवणता आदि देखकर वे लोग मुग्ध हो गये। शकुन्तला के अंगरेजी अनुवाद के भी अनुवाद जर्मन और फ्रेंच आदि अनेक भाषाओं में हो गये, जिन्हें पढ़कर तत्तद्देशवासियों ने भी उसकी श्रेष्ठता एक स्वर से कबूल की।

शकुन्तला वह चीज है जिसकी कृपा से भारतवासी हैवान से इंसान समझे जाने लगे—पशु से मनुष्य माने जाने लगे। अतएव भगवान् कालिदास के हम लोग हृदय से ऋणी हैं। शकुन्तला से योरप वालों को मालूम हो गया कि नाट्यविद्या में हिन्दू-सन्तान उन लोगों से