प्रतियोगिता की। इस कारण दोनों में विषम शत्रु भाव पैदा हो गया। एक दूसरी को नीचा दिखाने की सदा ही कोशिश करती रही। यहाँ तक कि कभी-कभी मारकाट तक की भी नौबत आई। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ झेलने के बाद अँगरेज-व्यापारियों को इन डच व्यापारियों की प्रतियोगिता से फुरसत मिली! कोई सौ वर्ष तक उनके तरह-तरह के दाँव-पेंच खेले गये। अन्त में डच लोगों ने आजिज आकर भारत से अपना सरोकार छोड़ दिया!
अब अकेली फ्रेंच कम्पनी का सामना अँगरेजों को करना पड़ा। इस फ्रेंच कम्पनी का भी आंतरिक अभिप्राय भारत को धीरे-धीरे अपनी मुट्ठी में कर लेने का था। और अँगरेज भी इसी इरादे से पैर फैला रहे थे। एक बिल में दो साँप कैसे रहें? इससे दोनों में घोर कलह उपस्थित हो गया। एक ने दूसरे को अपदस्थ करने की कोशिश आरम्भ कर दी। कूटनीति से काम लिया जाने लगा। जब उससे कामयाबी न हुई तब लड़ाइयाँ तक लड़ी गईं। एक कम्पनी दूसरी के पीछे ही पड़ी रही। होते होते अंगरेजों का प्रभुत्व बढ़ा? उसने फ्रांस वालों के बल को नष्ट-प्राय कर दिया। पांडीचरी, करीकाल और चन्द्रनगर की जमींदारियों को छोड़कर फ्रेंच लोगों का भारत में और कुछ बाकी न रहा। पोर्चुगीजों के कब्जे में भी समुद्र के किनारे-किनारे सिर्फ दस-पाँच मील जमीन रह गई। अंगरेजों ने कहा, "कुछ हर्ज नहीं। इन लोगों के पास इतनी जमींदारी बनी रहने दो! इससे हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता।"
अब अंगरेजों को अपना बल विक्रम और प्रभाव बढ़ाने में रोकने वाला कोई न रहा—फ्रेंच, पोर्चुगीज, डच सब ने उनके लिए रास्ता साफ कर दिया। अङ्गरेजों की महिमा बढ़ने लगी। व्यापार-वृद्धि के साथ साथ राज्य वृद्धि भी होने लगी। एक के बाद दूसरा प्रान्त उनका