कैथराइन के दहेज में दे डाला। परन्तु अँगरेज राज ने इस दहेज को तुच्छ समझकर १५० रुपये सालाना मालगुजारी देने का इकरार नामा लेकर, ईस्ट-इंडिया-कम्पनी को दे डाला। बम्बई और उसके आस-पास के प्रदेश की कीमत उस समय साढ़े बारह रुपये महीने से अधिक नहीं समझी गई!!!
व्यापार व्यवसाय और जमींदारी आदि बढ़ाने में पोर्चुगीज लोंगों की प्रतियोगिता यद्यपि जाती रही तथा अँगरेजों को भारत में सत्ता-विस्तार करते देख यौरप के और लोगों के मुँह से भी लार टपकने लगी फ्रांस, डेनमार्क और हालैंड में भी ईस्ट-इंडिया नाम की कम्पनियाँ खड़ी हुईं। उन्होंने भी भारत में व्यापार आरम्भ करके अंगरेज कम्पनी के मुनाफे को घटाना आरम्भ कर दिया। यही नहीं, किन्तु जर्मनी और स्वीडन में भी इस तरह की कम्पनियाँ बनीं। उन्होंने भी भारत में अपनी-अपनी कोठियाँ खोलीं। परन्तु डेनमार्क, जर्मनी और स्वीडन की कम्पनियों से हमारी अंगरेजी, ईस्ट इंडिया कम्पनी का कुछ भी नहीं बिगड़ा। इन तीन कम्पनियों का महत्व इतना कम था कि अंगरेजी कम्पनी के साथ ये नाम लेने योग्य चढ़ा-ऊपरी नहीं कर सकीं। परन्तु डच और फ्रेंच कम्पनियों के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। उनके कारण अंगरेज कम्पनी का मुनाफा और प्रभुत्व जरूर कम हो गया। डच लोग उस समय सामुद्रिक बल में अपना सानी न रखते थे। इससे उन लोगों ने हर तरह से अंगरेजी ईस्ट-इंडिया कम्पनी के साथ चढ़ा ऊपरी आरम्भ कर दी—यहाँ तक कि बल प्रयोग करके भी अपना मतलब निकालने में डच लोगों ने कसर नहीं की। भारत ही में अपना प्रभुत्व-विस्तार करके डच लोग चुप नहीं रहे। उन्होंने बड़ी फुरती से लंका, सुमात्रा, जावा और मलाका आदि द्वीपों का भी अधिकांश अपने कब्जे में कर लिया। इस डच कम्पनी ने अँगरेज-व्यापारियों की कंपनी के साथ जी-जान होकर