मदद से वे अपने नौकरों से किसी तरह बातचीत करने लगे। उसके बाद उन्हें संस्कृत सीखने की इच्छा हुई। इससे वे एक पंडित की तलाश में लगे। पर पंडित उन्हें कैसे मिल सकता था? वह आजकल का जमाना तो था नहीं। एक भी ब्राह्मण वेद और शास्त्र की पवित्र संस्कृत भाषा एक यवन को सिखाने पर राजी न हुआ। कृष्णनगर के महाराज शिवचन्द्र सर विलियम के मित्र थे। उन्होने भी बहुत कोशिश की, पर व्यर्थ। यवन को संस्कृत-शिक्षा! शिव शिव! सर विलियम ने बहुत बड़ी तनख्वाह का भी लालच दिया। पर उनका यह प्रयत्न भी निष्फल हुआ। लालच के मारे दो-एक पंडित सर विलियम के यहाँ पधारे भी और इसका निश्चय करना चाहा कि यदि वे उन्हें संस्कृत पढ़ावें तो क्या तनख्वाह मिलेगी? पर जब यह बात उनके पड़ोसियों ने सुनी तब उनके तलवों की आग मस्तक तक जा पहुँची। तुम यवनों के हाथ हमारी परम पवित्र देववाणी बेचोगे! अच्छी बात है; तुम बिरादरी से खारिज। तुम्हारा जलग्रहण बन्द। बस, फिर क्या था, उनका सारा साहस काफूर हो गया। फिर उन्होंने सर विलियम के बंगले के अहाते में कदम नहीं रक्खा। अब क्या किया जाय। खैर कलकत्ते में न सही, और कहीं कोई पंडित मिल जाय तो अच्छा। यह समझ कर सर विलियम संस्कृत के प्रधान पीठ नवद्वीप को गये। यहाँ भी उन्होने बहुत कोशिश की, परन्तु किसी ने उन्हें संस्कृत शिक्षा देना अंगीकार न किया। मूँड़ मार कर वहाँ से भी लौट आये।
इस नाकामयाबी और नाउम्मेदी पर भी सर विलियम जोन्स ने रगड़ नहीं छोड़ी। पण्डित की तलाश में वे बराबर बने ही रहे। अंत में ब्राह्मण तो नहीं, वैद्य-जाति के संस्कृतज्ञ ने, १००) रुपये महीने पर, आपको पढ़ाना मंजूर किया। इस पण्डित का नाम था रामलोचन कवि-भूषण। ये पंडित महाराज संसार में अकेले ही थे। न स्त्री थी, न