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सर विलियम जोन्स ने कैसे संस्कृत सीखी

भाषा और संस्कृत-साहित्य का महत्व योरप के विद्वानों पर विदित न होता। और यदि होता भी तो बहुत दिन बाद होता।

जून, १९०७ के "हिन्दुस्तान रिव्यू" में एक छोटा सा लेख, श्रीयुक्त एस॰ सी॰ सन्याल, एम॰ ए॰ का लिखा हुआ प्रकाशित हुआ है। उसमें लेखक ने दिखलाया है कि कैसी-कैसी कठिनाइयों को झेलकर सर विलियम ने कलकत्ते में संस्कृत सीखी। क्या हम लोगों में एक भी मनुष्य ऐसा है जो सर विलियम की आधी भी कठिनाइयाँ उठा कर संस्कृत सीखने की इच्छा रखता हो? कितनी लज्जा, कितने दुःख, कितने परिताप की बात है कि विदेशी लोग इतना कष्ट उठाकर और इतना धन खर्च करके संस्कृत सीखें और संस्कृत-साहित्य के जन्मदाता भारतवासियों के वंशज फारसी और अंगरेजी-शिक्षा के मद में मतवाले होकर यह भी न जानें कि संस्कृत नाम किस का है! संस्कृत जानना तो दूर की बात है, हम लोग अपनी मातृभाषा हिन्दी भी तो बहुधा नहीं जानते। और जो लोग जानते हैं उन्हें हिन्दी लिखते शरम आती है! इन मातृभाषा-द्रोहियों का ईश्वर कल्याण करे! सात समुद्र पार कर इंगलेंड वाले यहाँ आते हैं और न जाने कितना परिश्रम और खर्च उठाकर यहाँ की भाषाएँ सीखते हैं। फिर अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थ लिखकर ज्ञानवृद्धि करते हैं। उन्हीं के ग्रन्थ पढ़कर हम लोग अपनी भाषा और अपने साहित्य के तत्वज्ञानी बनते हैं। पर खुद कुछ नहीं करते। करते हैं सिर्फ कालातिपात। और करते हैं अँगरेजी लिखने की अपनी योग्यता का प्रदर्शन। घर में घोर अंधकार है, उसे तो दूर नहीं करते। विदेश में जहाँ गैस और बिजली की रोशनी हो रही है, चिराग जलाने दौड़ते हैं।

सर विलियम जोन्स, सुप्रीम कोर्ट के जज मुकर्रर होकर, १७८३ ई॰ में कलकत्ते आये। वहाँ आकर उन्होंने थोड़ी-सी हिन्दी सीखी। उसकी