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संस्कृत-साहित्य का महत्त्व

दसवीं सदी की चित्रकारी तो बहुत ही उत्तम मिलती है—कहीं गुफाओं के भीतर मन्दिरों में, कहीं दीवारों पर, कहीं ताड़ के पत्तों पर लिखी हुई पुस्तकों पर। यहाँ की संगतराशी के काम की तो सारी दुनिया तारीफ करती है। उसके तो बौद्ध कालीन नमूने तक मिलते हैं। इनके सिवा प्राचीन भारत-निवासियों को और भी छोटी-मोटी अनेक कलायें ज्ञात थीं।

इतिहास

कितने ही पुराणों में बड़े-बड़े राजवंशों का विवरण है। प्राचीन लिपियों के संग्रह से भारत के प्राचीन इतिहासज्ञान की प्राप्ति में खूब सहायता मिल रही है। सातवीं सदी से हमारे यहाँ लिखे हुए इतिहास मिलते हैं। उनमें सबसे पहिला हर्षवर्द्धन का इतिहास है। तब से भिन्न-भिन्न रूपों में इतिहास का लिखना बराबर जारी रहा। नव-साह साङ्क चरित, विक्रमांकदेव-चरित, द्वयाश्रय, राम-चरित, पृथ्वीराज-चरित और राज तरंगिणी आदि देखने से यह बात समझ में आ सकती है कि किस प्रकार भिन्न-भिन्न ढंग पर इतिहास लिखे गये हैं। खोज करने से इस विषय में और भी अधिक बातें मालूम हो सकती हैं। कोई तीन सौ वर्ष पहले, पंडित जगमोहन नाम के एक लेखक ने एक इतिहास संग्रह किया था। उसमें लेखक ने कई पूर्ववती संग्रहकर्त्ताओं के नाम दिये हैं। एक ऐसा ग्रन्थ मिला भी है। वह है भविष्यपुराणान्तर्गत ब्राह्म-खण्ड। उसे देखने से इतिहास और भूगोल-संबन्धिनी अनेक बातें ज्ञात होती हैं। अतएव कहना पड़ता है, संस्कृत साहित्य में इतिहास का अभाव है, यह आक्षेप निराधार है।

तत्व-ज्ञान

भारतीय तत्व-ज्ञान छः भागों में बँटा हुआ है। पर इस विषय में भिन्न-भिन्न आचार्यों के भिन्न-भिन्न मत हैं। वे एक दूसरे से नहीं