नहीं। इसी भास के नाटकों के अवतरण कौटिल्य के ग्रन्थ में पाये जाते हैं। इससे सिद्ध है कि कौटिल्य के पहले भास ने अपने ग्रथों की रचना की थी। कोहल, शाण्डिल्य, धूर्तित और वात्स्य ने नाट्य-शास्त्र पर बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे। वे सब ईसा के पहले दूसरी सदी ही में रचे गये। महाराज कनिष्क के गुरु अश्वघोष, बौद्ध धर्मीय महायान सम्प्रदाय के संस्थापक नागार्जुन, नागार्जुन के शिष्य आर्यदेव और मैत्रेयनाथ आदि ने ईसा की पहली से लेकर तीसरी सदी तक अपने ग्रन्थों की रचना की।
देखिए, संस्कृत-ग्रन्थों की रचना होती चली आई है। इन सदियों में भारत की राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, साम्पत्तिक तथा शिक्षा विषयक स्थितियों में बहुत कुछ उथल पुथल हुआ। तिस पर भी संस्कृत-साहित्य की शृङ्खला न टूटी। इस दृष्टि से संस्कृत-साहित्य का यह अटूट क्रम और भी आश्चर्यकारक है। वह कभी टूटा ही नहीं। कभी एक प्रान्त में तो कभी दूसरे प्रान्त में कहीं न कहीं, कोई न कोई ग्रन्थ लिखा ही गया। उत्तरी भारत में अफगानियों ने जो उत्पात तेरहवीं सदी में मचाया था वह दुनिया में अपना सानी नहीं रखता। पर उस समय भी गुजरात और मालवे में जैनियों ने साहित्य की वृद्धि की। भारत के पश्चिमी प्रान्तों में माधवाचार्य ने तथा दक्षिणी प्रान्तों और मिथिला में रामानुज के शिष्यों ने भी संस्कृत साहित्य के कलेवर को बढ़ाया। चौदहवीं सदी में सारा भारत मुगलों और पठानों के आक्रमणों से उच्छिन्न हो रहा था। तिस पर भी कर्णाटक देश में मध्वाचार्य द्रविड़ में वेदान्त-देशिक, मिथिला में चण्डेश्वर और उत्कल (उड़ीसा) में तो कितने ही लेखकों ने ग्रन्थ लिख-लिख कर साहित्य को पुष्ट किया।
इतना बड़ा और इतना अखण्डित ग्रन्थ संग्रह क्या हमारे लिये उपयोगी नहीं? ज़रूर है। उससे हमारी कल्पना शक्ति पुष्ट होती है;