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संस्कृत-साहित्य का महत्त्व

द्वारा दिया गया है। शास्त्रीजी नामी विद्वान् और पुरातत्वज्ञ हैं। आप संस्कृत साहित्य के पारदर्शी पण्डित हैं। संस्कृत-कालेज (कलकत्ता) के प्रधानाध्यापक रह चुके हैं। अब आप पेन्शन पाते हैं। काशी के हिन्दू विश्वविद्यालय के शिलारोपण सम्बन्धी महोत्सव के समय आपका भी एक व्याख्यान हुआ। उस व्याख्यान का मतलब सुनिए—

आरम्भ में शास्त्रीजी ने पूर्वोक्त विद्वान् के भ्रमपूर्ण वाक्य का उल्लेख किया। फिर कहा कि जिन दिनों की यह बात है उन दिनों संस्कृत साहित्य से पढ़े-लिखे लोगों का बहुत ही थोड़ा परिचय था। वे न जानते थे कि संस्कृत साहित्य कितने महत्व का है। उसमें भिन्न-भिन्न विषयों पर कितने ग्रन्थ अब भी विद्यमान हैं। उस समय अँगरेजी पाठशालाओं में संस्कृत की शिक्षा बहुत ही थोड़ी दी जाती थी। अँगरेजी ही का दौरदौरा था। इस कारण कुछ नव-शिक्षित लोग यह ख्याल कर बैठे थे कि अँगरेजी शिक्षा की बदौलत ही ज्ञान-सम्पादन हो सकता है। संस्कृत में धरा ही क्या है? व्याकरण रटते-रटते और कोष कण्ठ करते-करते जीवन व्यतीत हो जाता है; बाहरी व्यवहारिक ज्ञान ज़रा भी नहीं होता। अँगरेजी शिक्षा को देखिए। आठ ही दस वर्षों में विद्यार्थी केवल अङ्गरेजी भाषा में प्रवीणता नहीं प्राप्त कर लेता, किन्तु वह अनेक शास्त्रों के रहस्यों को भी जान जाता है, वह गणित इतिहास विज्ञान सम्बन्धिनी अनेक अनोखी बातों से भी अवगत हो जाता है। संस्कृत साहित्य से इतने ज्ञान-सम्पादन की आशा नहीं की जा सकती।

पर खुशी की बात है कि अब वह जमाना नहीं रहा। गत आठ ही वर्षों में जमीन आसमान का फर्क हो गया है। सन् १८७६ की एक बात मुझे याद आ गई। बङ्गाल के तत्कालीन छोटे लाट, सर रिचर्ड टेम्पल, ने एक बार कहा था—