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प्राकृत भाषा

वेणीसंहार की रचना हुई थी उस समय, जान पड़ता है, प्राकृत लुप्त-सी हो गई थी या होती जा रही थी। क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में जो प्राकृत शब्द आये हैं वे बोलचाल की भाषा के, अर्थात् स्वाभाविक, नहीं मालूम होते।

दशवीं शताब्दी में प्राकृत ने अपना पुराना रूप बदलते बदलते एक नया ही रूप धारण किया। यही समय वर्तमान देशी भाषाओं का उत्पत्तिकाल कहा जा सकता है। प्रायः सभी प्राकृतों के क्रियापदों में लिंगभेद न था। पर मालूम नहीं क्यों और कहाँ से वह पीछे से कूद पड़ा।

मजूमदार बाबू के लेख का यही सारांश है। उस दिन "मार्डन रिव्यू" में मिस्टर के॰ पी॰ जायसवाल का एक लेख हमारे देखने में आया। उसमें बाबू हीरालाल की तैयार की हुई प्राचीन पुस्तकों की एक सूची के कुछ अंश की आलोचना थी। बाबू साहब ने अपनी सूची में जैनों की कुछ प्राचीन पुस्तकों से अवतरण दिये हैं। वे पुस्तकें प्राकृत में है। पर उनकी भाषा वर्तमान हिन्दी भाषा से मेल खाती है। उन नमूनों से जान पड़ता है कि उसी समय अथवा उसके सौ पचास वर्ष आगे-पीछे उस हिन्दी ने जन्म लिया जो आज कल हम लोगों की मातृ-भाषा है। वह समय ईसा की दसवीं ही शताब्दी के आस-पास अनुमान किया जा सकता है।

[जनवरी, १९२८