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साहित्य-सीकर

भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार की और भी कितनी ही भाषाएँ उत्पन्न हो गईं। पीछे से बने हुए अलंकारशास्त्र-विषयक ग्रन्थों में दरजनों प्राकृत भाषाओं के नाम आये हैं। उनमें से कुछ भाषायें यवनों और अनार्य जातियों की भी हैं।

प्राकृत भाषा यद्यपि स्वाभाविक भाषा थी तथापि उसे भी संस्कृत के नमूने पर गढ़ने की चेष्टा की गई थी। इसी के फलस्वरूप आदर्श शौरसैनी प्राकृत का जन्म हुआ था। छठी शताब्दी के पहले की प्राकृत के साथ पीछे की प्राकृत की तुलना करने से मालूम होता है कि वह दिन पर दिन संस्कृत से दूर होती जाती थी। कौन प्राकृत पहले की, और कौन पीछे की, यह बात जानने की अच्छी कसौटी इन दोनों की तुलना ही है। इस विषय के कुछ दृष्टान्त हम उस समय के नाटकों से नीचे देते हैं:—

कविवर कालिदास ने जिस प्राकृत का व्यवहार किया है उसके प्रायः सभी शब्द मूल संस्कृत शब्दों से मिलते जुलते हैं। कालिदास के समय की प्राकृत संस्कृत से जितना नैकट्य रखती है, रत्नावली के समय की उतना नैकट्य नहीं रखती। हिन्दी में एक शब्द है "अपना"। उसकी उत्पत्ति संस्कृत भाषा के "आत्म" शब्द से है। कालिदास के समय में आत्मा और आत्मनः की जगह अत्ता और अत्तन देखा जाता है। पर रत्नावली में उनके स्थान में अप्पा और अप्पन आदि शब्द पाये जाते हैं। और भी पीछे के समय की प्राकृत में ऐसे शब्द मिलते हैं जिनका सम्बन्ध उनके सम्मानार्थवाची संस्कृत शब्दों से बहुत ही कम है या बिलकुल ही नहीं है। मृच्छकटिक-नाटक में ऐसे शब्दों का विशेष आधिक्य है। यथा—छिनालयापुत्त (पुंश्चली-पुत्र), गोड (पापाय, पाद), मग्मिदुं (प्रार्थयितुं), फेलदु (क्षिपतु) आदि अनेकानेक शब्द उदाहरणार्थ लिखे जा सकते हैं। जिस समय मुद्राराक्षस और