की भाषा में कुछ न कुछ अन्तर जरूर रहता ही है। वैसा ही अन्तर उस समय भी बोलचाल की और वेदों की भाषा में यदि रहा हो तो रह सकता है।
कुछ समय पूर्व; बँगला-भाषा के प्रसिद्ध लेखक, बाबू विजयचन्द्र मजूमदार ने इस विषय में एक लेख लिखा था। उन्होंने प्राकृत भाषा की उत्पत्ति और लोप के विषय में, कुछ सिद्धान्त स्थिर किये हैं। उनके वे सिद्धान्त प्रमाणों और युक्तियों का आधार लिए हुए हैं और विचार-योग्य हैं। अतएव उनका आशय आगे दिया जाता है।
जो भाषा वैदिक काल में प्रचलित थी उसका नाम देव-भाषा है; क्योंकि उसी भाषा में वैदिक ऋषि देवों का गुणगान करते थे। और जिस भाषा में देव-गुणगान किया जाय वह देव-भाषा कही जाने की जरूर ही अधिकारिणी है। परन्तु बौद्ध-काल में वही भाषा संस्कृत होकर शास्त्रों और पुराणों आदि की भाषा रह गई। उस पुरानी भाषा का संस्कार किया जाने ही से उसका नाम संस्कृत हो गया। उस समय, अर्थात् बौद्ध-काल में, लोक-व्यवहृत भाषा—बोलचाल की भाषा—उससे भिन्न हो गई थी। उस समय की यह भिन्न भाषा संसार में पाली के नाम से विख्यात है। अशोक की प्रायः सभी शिलालिपियाँ इसी भाषा में पाई जाती हैं। उनको देखने से मालूम होता है कि उस समय प्रायः सारे आर्यावर्त में वही भाषा अर्थात् पाली ही प्रचलित थी। सर्व साधारण जन वही भाषा बोलते थे। अशोक के समय में पाली ने बड़ी उन्नति की थी। जैसे हिन्दुओं के शास्त्रों की भाषा संस्कृत थी वैसे ही बौद्धों के ग्रन्थो की भाषा पाली थी। बात यह थी कि सर्व साधारण की समझ में आने के लिए बौद्धधर्म से सम्बन्ध रखनेवाले प्रायः सभी ग्रन्थ पाली ही भाषा में लिखे जाते थे। परन्तु बौद्ध धर्म की अवनति के साथ ही साथ पाली भाषा की भी अवनति होती गई। इधर हिन्दू