चाहें विद्या विषयक दृष्टि से देखिए, वेदों की बराबरी और किसी देश का कोई ग्रन्थ नहीं कर सकता। प्राचीन समय की विद्या, सभ्यता और धर्म का जैसा उत्तम चित्र वेदों में पाया जाता है अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता। वैदिक समय में भारतवासियों की सामाजिक अवस्था कैसी थी वे किस तरह अपना जीवन निर्वाह करते थे, कहाँ रहते थे, क्या किया करते थे—इन सब बातों का पता यदि कहीं मिल सकता है तो वेदों ही में मिल सकता है। अतएव वेदाध्ययन करना हम लोगों का बहुत बड़ा कर्त्तव्य है।
जिस रूप में आजकल वेद ग्रन्थ देखे जाते हैं वह उनका आदिम रूप नहीं। उनका वर्त्तमान रूप वेदव्यासजी की कृपा का फल है। व्यासजी के पहले वैदिक स्तोत्र-समूह एक जगह एकत्र न था। वह कितने ही भिन्न भिन्न अंशों में प्राप्य था। क्योंकि सारे स्तोत्र समूह की रचना एक ही समय में नहीं हुई। कुछ अंश कभी बना है, कुछ कभी। किसी की रचना किसी ऋषि ने की है, किसी की किसी ने। उन सब बिखरे हुए ग्रन्थों को कृष्ण द्वैपायन ने एक प्रणाली में बन्द कर दिया। तभी से वेदों के नाम के आगे "संहिता" शब्द प्रयुक्त होने लगा। उसका अर्थ है—"समूह", "जमाव", "एकत्रीकरण"। वर्त्तमान रूप में वेद-प्रचार करने ही के कारण बादरायण का नाम वेदव्यास पड़ा। उन्होंने समग्र वेद अपने चार शिष्यों को पढ़ाया। बहवृच नामक ऋग्वेद संहिता पैल को; निगद नामक यजुर्वेद संहिता वैशम्पायन को, छन्दोग नामक सामवेद संहिता जैमिनी को और अङ्गिरसी नामक अथर्व संहिता सुमन्तु को। इन चारों शिष्यो ने अपने-अपने शिष्यों को नई प्रणाली के अनुसार वेदाध्ययन कराया। इस प्रकार वेद-पाठियों की सख्या बढ़ते-बढ़ते वेदों की अनेक शाखायें हो गईं—मन्त्रों में कहीं-कहीं पाठ भेद हो गया। किसी ऋषि के पढ़ाये शिष्य