सकता है कि वैदिक ऋषि मन्त्रद्रष्टा थे। उन्होंने योगबल से ईश्वर से प्रत्यादेश की तरह बैदिक-मंत्र प्राप्त किये हैं। यदि यह बात है तो इन सूक्तों में इन ऋषियों की निज की दशा का वर्णन कैसे आया? ये मंत्र इनकी अवस्था के ज्ञापक कैसे हुए? ऋग्वेद का कोई ऋषि कुयें में गिर जाने पर उसी के भीतर पड़े-पड़े स्वर्ग और पृथ्वी आदि की स्तुति कर रहा है। कोई इन्द्र से कह रहा है, आप हमारे शत्रुओं का संहार कीजिए। कोई सविता से प्रार्थना कर रहा है कि हमारी बुद्धि को बढ़ाइए। कोई बहुत सी गायें माँग रहा है, कोई बहुत से पुत्र। कोई पेड़, सर्प अरण्यानी इल और दुन्दुभी पर मंत्र रचना कर रहा है। कोई नदियों को भला बुरा कह रहा है कि ये हमें आगे बढ़ने में बाधा डालती हैं। कहीं मांस का उल्लेख है, कहीं सुरा का। यहीं धूत का। ऋग्वेद के सातवें मंडल में तो एक जगह एक ऋषि ने बड़ी दिल्लगी की है। सोमपान करने के अनन्तर वेद पाठ-रत ब्राह्मणों की वेद-ध्वनि की उपमा आपने बरसाती मेंढकों से दी है। ये सब बातें वेद के ईश्वर प्रणीत न होने की सूचक हैं। ईश्वर के लिए गाय, भैंस, पुत्र, कलत्र, दूध, दही माँगने की कोई जरूरत नहीं। यह ऋग्वेद की बात हुई। यजुर्वेद का भी प्रायः वही हाल है। सामवेद के मंत्र तो कुछ को छोड़ कर शेष सब ऋग्वेद ही से चुने गए हैं। रहा अथर्ववेद, सो वह तो मारण मोहन, उच्चाटन, और वशीकरण आदि मंत्रो से परिपूर्ण हैं। स्त्रियों को वश में करने और जुवे में जीतने तक के मंत्र ऋग्वेद में हैं। अतएव इस विषय में विशेष वक्तव्य की जरूरत नहीं। न ईश्वर जुवा खेलता है, न वह स्त्रेणा ही है और न वह ऐसी बातें करने के लिये औरों को प्रेरित ही करता है। ये सब मनुष्यों ही के काम हैं, उन्होंने वेदों की रचना की है।
परन्तु ईश्वर-प्रणीत न होने से वेदों का महत्व कुछ कम नहीं हो सकता। चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से देखिए, चाहे धार्मिक दृष्टि से देखिए,