अनुवाद देशी भाषाओं में किये जाने की मुमानियत हो गई है। सरकार अब तक जो फौजी किताबें, कवावद परेड आदि से सम्बन्ध रखने वाली, निकलती थीं उनका अनुवाद करके कुछ लोग चार पेसे कमा खाते थे। उनके अनुवाद सुन्दर होते थे और ठीक-ठीक भी होते थे। जिन फौजी सिपाहियों वगैरह के लिये वे अनुवाद किये जाते थे कि वे इन्हें बहुत पसन्द करते और खुशी से खरीदते और पढ़ते थे। सरकारी दफ़्तरों से भी अँगरेजी कवायद-परेड की पुस्तकों के अनुवाद हिन्दी, उर्दू और गुरमुखी आदि भाषाओं में निकलते थे। पर वे वैसे ही होते थे, और अब भी होते हैं, जैसे प्रचलित ऐक्टों (कानूनों) और अन्य सरकारी पुस्तकों के होते हैं। ऐसे अनुवादों की भाषा दूषित ही नहीं, दुरूह भी होती है। इसी से लोग उनकी अपेक्षा अन्य अनुवादकों और प्रकाशकों के अनुवाद अधिक पसन्द करते थे। वे उनकी समझ में अच्छी तरह आ जाते थे। इससे सरकारी आज्ञाओं के पालन और कवायद-परेड के नियमों की जानकारी आसानी से हो जाने के कारण सरकारी काम में भी विशेष सुभीता होता था। परन्तु इन सुभीतों की ओर दृक्पात न करके सरकार ने अब गैर-सरकारी अनुवादों का किया जाना ही बहुत कुछ रोक दिया है। उसने ऐसा क्यों किया, इस पर अनुमान लड़ाना व्यर्थ है। सम्भव है, इस नई आज्ञा ही से उसने अपना और देश का लाभ सोचा हो। यह भी सम्भव है कि इस आज्ञा की तह में कोई राजनैतिक रहस्य हो। अस्तु।
बात यहीं तक नहीं रही! सुनते हैं, अब कवायद परेड की किताबों, और देशी पल्टनों के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली अन्य पुस्तकों, से देवनागरी, उर्दू और गुरमुखी आदि अक्षरों का भी "बाय-काट" कर दिया गया है। शायद इस विषय में कोई मन्तव्य या आदेश भी फौजी महकमे से निकल गया है। सो, यदि यह सच है तो