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साहित्य-सीकर

बहुत ही थोड़े हुए हैं जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के संचित ज्ञान से, अपनी रचनाओं में, कुछ भी लाभ न उठाया हो। सर जगदीशचंद्र बसु ने कितने ही नये-नये और अद्भुत-अद्भुत आविष्कार किये हैं और उनका विरेचन बड़े-बड़े ग्रन्थों में किया है। आप उनकी पुस्तकों को पढ़िए। आप देखेंगे कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती विज्ञान-वेत्ताओं के द्वारा संचित ज्ञान से कितना लाभ उठाया है। यह कोई नई बात नहीं। यह बात लेखक या विज्ञानवेत्ता की न्यूनता या क्षुद्रता की भी द्योत्तक नहीं। दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान से लाभ उठाने की परिपाटी तो परम्परा ही से चली आ रही है। और, पूर्वजों के इस ऋण से बचने का कोई उपाय भी तो नहीं। सभी लेखक—सभी ग्रन्थकार—अपने पूर्ववर्त्ती पंडितों के ज्ञान से अपनी ज्ञान-वृद्धि करते चले आ रहे हैं। यह क्रम आज का नहीं, बहुत पुराना है और सतत जारी रहेगा। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य-समुदाय आज ज्ञानार्जन की जिस सोपान-पंक्ति पर पहुँचा है उस पर कदापि न पहुँचता।

अतएव विवेचक जनों को देखना चाहिये कि जो पुस्तक उनके हाथ में है या जिसकी वे समालोचना करते आ रहे हैं उसमें ज्ञानवर्धन की कुछ सामग्री है या नहीं। अर्थात् जिन लोगों के लिये वह लिखी गई है उनके लिये वह सामग्री उससे अच्छे रूप में अन्यत्र सुलभ है या नहीं। यदि है और हाथ में ली हुई पुस्तक में कुछ भी, किसी तरह की, विशेषता नहीं तो उसे महत्वहीन समझना चाहिये। यदि यह बात नहीं और यदि उस पुस्तक से उसके विषय के किसी भी अंश की कमी दूर हो सकती है तो यह अवश्य ही अवलोकनीय है।

[दिसम्बर, १९२६