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मौलिकता का मूल्य

हैं कि जिस वस्तु का मूल अर्थात् जड़ उसी में हो उसी को मौलिक कहते हैं। मतलब यह कि जिस पुस्तक में और कहीं से कुछ भी न लिया गया हो वही मौलिक है।

यह तो "मौलिक" शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ हुआ। इसी अर्थ को शायद ध्यान में रखकर हिन्दी-साहित्य से संबन्ध रखने वाली प्रतिष्ठित संस्थायें मौलिक पुस्तकों के कर्त्ताओं को बड़े-बड़े पारितोषिक देने की घोषणा करती हैं। परन्तु जब मौलिक मानी गई पुस्तकें जाँच करने वाले साहित्यशास्त्रियों के सामने जाती हैं तब और ही गुल खिलता है। तब तो वे लोग यदाकदा औरों की लिखी हुई मूल पुस्तकों के भाष्यों और टीकाओं को भी मौलिक समझकर भाष्यकारों और टीका-लेखकों को भी उपहार का पात्र निश्चित कर देते हैं। इससे या तो यह सूचित होता है कि कोशकारों का किया हुआ, मौलिक शब्द का अर्थ परीक्षक पण्डितों को मान्य नहीं या पुस्तकें भेजने वाली और उपहार देने वाली संस्था के मौलिक-रचना-सम्बन्धी नियमों के परिपालन की उन्हें परवा नहीं। इससे यह भी सूचित होता है कि औरों के कथन को अपनी भाषा में अच्छी तरह समझा देने वाले या उसकी व्याख्या करने वाले लेखक भी मौलिक लेखक ही के सदृश महत्व रखते हैं।

संसार में ज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। मनुष्यों पर अपने पूर्ववर्ती पुरुषों के ज्ञानोपदेश का असर पड़े बिना नहीं रहता। यही हाल लेखकों का भी है। किसी विषय पर कुछ लिखने वाले लेखक के हृदय में उन विषय की दृष्टपूर्व पुस्तकों के भाव जरूर ही जागृत हो उठते हैं। जिसने कालिदास या भारवि या शेक्सपियर आदि महाकवियों के काव्यों का परिशीलन किया है वह यदि उन्हीं काव्यों में वर्णित विषयों पर कविता लिखने बैठेगा तो यह सम्भव नहीं कि उसकी रचना में उनके भावों की कुछ न छाया न आ जाय। इस दशा में सर्वतोभाव से मौलिक रचना परम दुस्तर है। ऐसे लेखक दुनिया में