वेदों का ज्ञान होता है। अथर्ववेद एक प्रकार का परिशिष्ट है। ऋग्वेद में तीन ही वेदों का उल्लेख है। यथा—
"अहे वुध्निय मन्त्र मे गोपाया
यमृपयस्त्रयी वेदा विदुः।
ऋचो यजूँषि सामानि।"
मनुस्मृति में भी मनु ने "ददोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्" कह कर तीन ही वेदों का नाम लिया है। परन्तु पीछे चार वेद माने जाने लगे। श्रीमद्भागवत और विष्णुपुराण आदि पुराणों में तो सर्वत्र ही चार वदों का उल्लेख है—लिखा है कि ब्रह्मा के एक-एक मुँह से एक-एक वेद निकला है।
सनातनधर्म्मावलम्बी हिन्दुओं का पक्का विश्वास है कि वेद नित्य है। वे ईश्वर-प्रणीत है। कपिल ने सांख्य दर्शन में ईश्वर की स्थिति में तो सन्देह किया है—"प्रमाणाभावाम्न तत्सिद्धिः"; पर वेदों के ईश्वर प्रणीत होने में कोई सन्देह नहीं किया। यथा—
"न पौरुषेयत्वं तत्कर्त्तः पुरुषस्यासम्भवात्"।
न्याय-दर्शन के कर्त्ता गौतम को छोड़ कर सब दर्शनकारों की यही राय है। सब वेदों को ईश्वर-कृत मानते हैं। अकेले गौतम ही ने उन्हें पौरुषेय अर्थात् पुरुषकृत लिखा है। अब नहीं कह सकते, इस 'पौरुषेय' से उनका क्या मतलब था? वेदों को साधारण, हम तुम सदृश पुरुषों के रचे हुए मानते थे या पुरुष-प्रकृति वाले "पुरुष" (ईश्वर) से उनका मतलब था। यदि उन्हें पिछली बात अभीष्ठ थी तो यह कहना चाहिये कि सभी दर्शनकारों की इस विषय में एकता है। किसी किसी मुनि की तो यहाँ तक राय है कि वेद नित्य है और उन्हीं के अनुसार ईश्वर सृष्टि की रचना करता है। सो वेद ईश्वर के भी पथ-प्रदर्शक हुये। वेद नित्य हैं, इससे कल्पान्त में वे हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) को आप ही आप प्राप्त हो जाते हैं। सृष्टि के आदि में हिरण्यगर्भ ही पहले पैदा होते