अदालत में पहुँचे, जब जूरी लोग सलाह करने के लिये कमरे में बन्द कर दिये गये तब वे पहरेदारों की नजर बचाकर उस कमरे में छतपर चढ़ गये। कमरे के पीछे, अर्थात् इमारत के बाहरी तरफ, हवा आने-जाने के लिए एक खिड़की थी। तीनों संवाददाता उसी ओर पहुँचे। मकान कई मंजिला था। बीच के एक खण्ड में खड़े होकर दोनों ने रस्सा पकड़ लिया; एक उसे साधकर कुछ दूर नीचे उतर गया और खिड़की के पास ठहरकर रस्से पर बँधे हुये झूले पर बैठ गया। इस खिड़की से कमरे के अन्दर बन्द जूरियों की बातचीत अच्छी तरह सुन पड़ती थी। वहाँ वह पूरे पाँच घन्टे लटका रहा और जूरियों की कारवाई के नोट लेता रहा। दूसरे दिन उस अखबार में, जिसके यह संवाददाता थे, जूरियों की कारवाई की विस्तृत रिपोर्ट छपी। उसे देखकर सब लोग दंग रह गये। पहले तो अन्य अखबारों ने इसे बनावटी बतलाया; पर इसकी सचाई का सबूत पाने पर चुप हो गये। दूसरे दिन अदालत में दूना पहरा बिठाया गया। पर संवाददाताओं ने बड़ी चतुरता की, वे कचहरी के एक कोने में छिप रहे। जब चारों तरफ ताले लग गये तब एक अन्य खिड़की से जूरियों की कारवाई सुनने लगे। रात भर जूरियों की बहस होती रही। संवाददाता भी वहीं डटे रहे। दूसरे और तीसरे दिन भी यही हाल रहा। अर्थात् न जूरियों की बहस समाप्त हुई और न संवाददाताओं ने पीछा छोड़ा। जब जूरियों की सलाह पक्की हुई तब संवाददाता वहाँ से टले। इधर उस अखबार में जूरियों की प्रतिदिन की कारवाई रोज रोज प्रकाशित होती रही। पर लोगों की समझ में न आता था कि ये गुप्त बातें उसे कैसे मालूम हो जाती हैं, वे बड़े चक्कर में थे। असल बात मालूम होने पर केवल सर्वसाधारण ही ने नहीं, किन्तु जज ने भी संवाददाताओं के साहस और चतुरता की खूब प्रशंसा की। पहले ये ५४ रुपये प्रति सप्ताह पाते थे; इस काम के पुरस्कार में उनकी तनख्वाह दूनी से भी अधिक कर
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