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साहित्य-सीकर

ने लिखा है कि—"एक बार एक संपादक ने कत्ल के एक मुकद्दमे के विषय में विचार प्रकट करने के लिये मुझसे कहा। मैं लेख लेकर संपादक के पास गया। उसने उसे लेकर और लिखाई देकर मुझे बिदा कर दिया। दूसरे दिन लेख छपा। मैंने देखा कि उस लेख में मेरे हस्ताक्षर के सिवा मेरा कुछ नहीं है। मेरे लेख की भाषा और भाव बिलकुल बदल डाले गये थे। इसका कारण यह था कि इस मुकदमे में जिसको मैंने दोषी ठहराया था उसे पत्र संपादक बचाना चाहता था"। यद्यपि यह घृणित काम है। तथापि अखबार वाले इस बात की परवा नहीं करते। वे नित्य ऐसी चालें चला करते हैं।

सन्त निहालसिंह का कथन है कि अमेरिका के संपादक और संवाददाता बड़े चालबाज होते हैं। इसके कई उदाहरण भी आपने दिये हैं। आप लिखते हैं कि—"पश्चिमी अमेरिका के एक नगर में एशियावालों को निकालने के लिये लोग व्याकुल थे। अखबारों में इसकी धूम मची हुई थी। इस समय एक एशिया निवासी सज्जन वहाँ पधारे और एक बड़े भारी होटल में उतरे। एक अखबार का संवाददाता आपसे मिलने गया और प्रश्न करने लगा। पर आपने कुछ उत्तर न दिया; केवल इतनी बात कही कि मैं अपने देश का राजकर्मचारी हूँ, इसीलिये किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहता। संवाददाता धन्यवाद देकर चला गया। उसी दिन शाम को उस पत्र में एक एशियाई सज्जन से मुलाकात का वृत्तान्त निकाला। उसमें लिखा गया था कि यह एशियाई "भर्त्ती वाला एजेन्ट" है अर्थात् अमेरिका में एशिया से जितने आदमी आते हैं उन्हें यही लाता है। खैरियत यह हुई कि वे एशियाई महाशय वहाँ से चुपचाप तुरन्त खिसक गये; नहीं तो न मालूम वे लोग उनकी कैसी दुर्दशा करते।" आप ही के शब्दों में एक और किस्सा सुनिये—

"एक बार एक संवाददाता मेरे पास आया और हिन्दुस्तानी स्त्री-