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साहित्य का उद्देश्य


करे, उनके कलम से जो कुछ निकले, ब्रह्मवाक्य समझा जाय । वह शायद समझते है, मौलिकता उपाधियो से आती है। वह यह भूल जाते हैं कि बिरला ही कोई उपाधिधारी मौलिक होता है। उपाधियाँ जानी हुई और पढी हुई बातो के प्रदर्शन या परिवर्तन से मिलती हैं। मौलिकता इसके सिवा और कुछ भी है। अगर कोई 'डाक्टर' या 'प्रोफेसर' लिखे तो शायद ऊँचे मस्तिष्क वालो की यह बिरादरी उसका स्वागत करे। लेकिन दुर्भाग्य-वश हिन्दी के अधिकाश लेखक न डाक्टर है, न फिलासफ़र, फिर उनकी रचनाये कैसे सम्मान पायें और कैसे आलोचना के योग्य समझी जायें । किसी वस्तु की प्रशसा तो और बात है, निन्दा भी कुछ न कुछ उसका महत्व बढाती है । वह निन्दा के योग्य तो समझी गई । हमारी यह दिमागवालो की बिरादरी किसी रचना की प्रशसा तो कर ही नही सकती; क्योकि इससे उसकी हेठी होती है, दुनिया कहेगी, यह तो शा। और शेली और शिलर की बातें किया करते थे, उस आकाश से इतने नीचे कैसे गिर गये ! हिन्दी मे भी कोई ऐसा चीज हो सकती है, जिसकी ओर वह ऑखे उठा सके, यह उनकी शिक्षा और गौरव के लिये लज्जास्पद है । बेचारे ने तीन वर्ष पेरिस और लन्दन की खाक छानी, इसीलिये कि हिन्दी लेखको की आलोचना करे ! फारसी पढ़कर भी तेल बेचे ! हम ऐसे कितने ही सज्जनो को जानते है जो डाक्टर या डी० लिट्० होने के पहले हिन्दी मे लिखते थे, लेकिन जब से डाक्टरेट की उपाधि मिली, वह पतंग की भाँति श्राकाश मे उड़ने लगे। अालोचना साहित्य की उनके द्वारा पूर्ति हो सकती थी; क्योकि रचना के लिये चाहे विशेष शिक्षा की जरूरत न हो, आलोचना के लिये संसार-साहित्य से परिचित होने की ज़रूरत है। हमारे पास कितने ही युवक लेखको की रचनाये, प्रकाशित होने के पहले, सम्मति के लिये आती रहती हैं । लेखक के हृदय मे भाव है, मस्तिस्क मे विचार हैं, कुछ प्रतिभा है, कुछ लगन, कुछ संस्कार, उसे केवल एक अच्छे सलाहकार की जरूरत है। इतना सहारा पाकर वह कुछ से कुछ हो जा सकता है;लेकिन यह सहारा उसे