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साहित्य में समालोचना


आकाक्षायें होती है जिनसे वर्तमान युग आन्दोलित हो रहा है । यदि हम पुराने विशाल खण्डहरो ही को प्रतिमा को भॉति पूजते रहे और अपनी नई झोपड़ी की बिल्कुल चिन्ता न करें तो हमारी क्या दशा होगी, इसका हम अनुमान कर सकते हैं।

आइए देखें इस अभाव का कारण क्या है । हिन्दी-साहित्य मे ऐसे लेखको की ईश्वर की दया से कमी नहीं है जो संसार साहित्य से परि- चित है, साहित्य के मर्मज्ञ हैं, साहित्य के तत्वो को समझते हैं। साहित्य का पथ प्रदर्शन उन्हीं का कर्तव्य है। लेकिन या तो वह हिन्दी पुस्तकों की आलोचना करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं या उन्हे हिन्दी-साहित्य मे कोई चीज आलोचना के योग्य मिलती ही नहीं या फिर हिन्दी भाषा उन्हें अपने गहरे विचारों को प्रकट करने के लिए काफी नहीं मालूम होती। इन तीनो ही कारणों मे कुछ न कुछ तत्व है, मगर इसका इलाज क्या हिन्दी-साहित्य से मुंह मोड़ लेना है ? क्या आखें बन्द करके बैठ जाने से ही सारी विपत्ति-बाधायें टल जाती हैं ? हमें साहित्य का निर्माण करना है, हमे हिन्दी को भारत की प्रधान भाषा बनाना है, हमे हिन्दी-द्वारा राष्ट्रीय एकता की जड़ जमाना है। क्या इस तरह उदासीन हो जाने से ये उद्देश्य पूरे होंगे ? योरोपीय भाषाओं की इसलिए उन्नति हो रही है कि वहाँ दिमाग और दिल रखने वाले व्यक्ति उससे दिलचस्पी रखते हैं, बडे-बड़े पदाधिकारी, लीडर, प्रोफेसर और धर्म के प्राचार्य साहित्य की प्रगति से परिचित रहना अपना कर्तव्य समझते हैं। यही नहीं बल्कि अपने साहित्य से प्रेम उनके जीवन का एक अग है, उसी तरह जैसे अपने देश के नगरो और दृश्यों की सैर। लेकिन हमारे यहाँ चोटी के लोग देशी साहित्य की तरफ ताकना भी हेय समझते है। कितने ही तो बडे रोब से कहते हैं, हिन्दी मे रखा ही क्या है। अगर कुछ गिने-गिनाये लोग हैं भी तो वह समझते हैं इस क्षेत्र मे आकर हमने एहसान किया है । वह यह आशा रखते है कि हिन्दी संसार उनकी हर एक बात को आखे बन्द करके स्वीकार