पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/९४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८८
साहित्य का उद्देश्य

पटरी पर लेट गया। ज़रा देर मे एक गाड़ी आई और उसकी हड्डियो तक को चूर-चूर कर गई।

चौथी घटना एक दूसरे नगर की है। मन्दिरो पर स्वयसेवकों का पहरा था । स्वयसेवक जिसे विलायती कपड़े पहने देखते थे उसे मन्दिर मे न जाने देते थे। उसके सामने लेट जाते थे। कही-कहीं स्त्रियाँ भी पहरा दे रही थीं । सहसा एक स्त्री खद्दर की साडी पहने आकर मन्दिर के द्वार पर खडी हो गई। वह कॉग्रेस की स्वयंसेविका न थी, न उसके अचल मे सत्याग्रह का बिल्ला ही था । वह मन्दिर के द्वार के समीप खड़ी तमाशा देख रही थी और स्वयसेविकाएँ विदेशी वस्त्र-धारियो से अनुनय-विनय करती थीं, सत्याग्रह करती थी। पर वह स्त्री सबसे अलग चुपचाप खड़ी थी । उसे आये कोई घटा-भर हुआ होगा, कि सड़क पर एक फिटन पाकर खड़ी हुई और उसमे से एक महाशय सुन्दर महीन रेशमी पाड़ की धोती पहने निकले । यह थे रायबहादुर हीरामल, शहर के सबसे बड़े रईस, आनरेरी मैजिस्ट्रेट, सरकार के परम भक्त और शहर की अमन-सभा के प्रधान । नगर मे उनसे बढ़कर कॉग्रेस का विरोधी न था । पुजारीजी ने लपककर उनका स्वागत किया और उन्हें गाड़ी मे उतारा । स्वयंसेविकालो की हिम्मत न पड़ी, कि उन्हे रोक ले । वह उनके बीच मे होते हुए द्वार पर आये और अन्दर जाना ही चाहते थे, कि वही खद्दरधारी रमणी श्राकर उनके सामने खड़ी हो गई और गम्भीर स्वर मे बोली-आप यह कपड़े पहनकर अन्दर नहीं जा सकते।।

हीरामलजी ने देखा, तो सामने उनकी पत्नी खड़ी है। कलेजे मे बरछी-सी चुभ गई । बोले-तुम यहाँ क्यो आई ?

रमणी ने दृढ़ता से उत्तर दिया-इसका जवाब फिर दूंगी। आप यह कपड़े पहने हुए मन्दिर मे नहीं जा सकते ।

'तुम मुझे नहीं रोक सकती।'

'तो मेरी छाती पर पॉव रखकर जाइएगा।'

यह कहती हुई वह मन्दिर के द्वार पर बैठ गई।